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________________ ७६ जीवन विज्ञान : सिद्धान्त और प्रयोग नहीं और कोई प्रयोग भी नहीं करते । बहुत सामान्य बात है । शरीर में कोई बीमारी पैदा हुई, दवाई लेते हैं। दवाई लेना कोई बुरी बात नहीं है। एक साधन है । जैसे भोजन करते हैं और एक मांग की पूर्ति करते हैं वैसे ही दवाई लेना कोई बुराई की बात नहीं होती । दवा ली। जो कुछ क्षति हो गई, उसकी पूर्ति कर ली । यदि हम भोजन को ही जीवन मान बैठे, भोजन को ही स्वास्थ्य देने वाला मान बैठें, तो बुराई हो जाएगी। दवा तब काम करती है जब प्राणशक्ति ठीक होती है प्राणशक्ति का दीप जब टिमटिमाने लग जाता है तब कितनी दवाइयां लो, कोई काम नहीं करेगी। दवा पहली बात नहीं है। पहली बात है प्राणशक्ति। जब-जब शरीर पर कोई आक्रमण हो, सर्दी का, बीमारी का, ज्वर का तो सबसे पहले हमारा ध्यान जाना चाहिए कि प्राणशक्ति में कहीं न कहीं असंतुलन हुआ है। बिजली की जो धारा चल रही थी, जो प्रवाह चल रहा था, कहीं अवरोध पैदा हुआ है । कहां खराबी हुई है, इस बात की ओर ध्यान जाए और सहायक सामग्री के रूप में दूसरे पदार्थ पर भी ध्यान जाए, बात ठीक हो जाएगी। भीतर की शक्ति कान से कम सुनाई देने लगा। डॉक्टर से पूछा गया-कोई उपाय है ? डॉक्टर ने कहा-कोई उपाय नहीं है। आधुनिक वैज्ञानिक साधनों से सम्पन्न डॉक्टर अगर यदि कहे कि आज कान से सुनने का कोई उपाय नहीं है,इसका मतलब है कि बाहर की शक्ति व्यर्थ है। उस शक्ति का अब कोई उपयोग नहीं । जो कान की आंतरिक शक्ति थी वह अब समाप्त हो रही है। इसलिए दवा अब कोई काम नहीं करेगी। आंख बिलकुल ठीक देख रही है। कोई फर्क नहीं पड़ता । साफ, स्वच्छ और निर्मल, किन्तु ज्योति समाप्त । ज्योति कहां चली गई है ? बस, भीतर के स्नायु सिकुड़ गए, आंख ठीक है पर ज्योति चली गई। आंख ठीक, फिर भी दिखाई नहीं देता। कान का पर्दा ठीक, फिर भी सुनाई नहीं देता। बाहर आकार ठीक है, संरचना ठीक है किन्तु भीतर कोई गड़बड़ी हो गई। यहां भीतर में प्रवेश करने का द्वार हमारे सामने आता है। देखने की शक्ति दो भागों में बंटी हुई है। जैन आचार्यों ने इसे कहा-निर्वृत्ति इन्द्रिय और उपकरण इन्द्रिय । एक है निर्वृत्ति-इन्द्रिय की संरचना, उसका आकार और दूसरा है उपकरण इन्द्रिय-अपने विषय को ग्रहण करने वाली शक्ति। यदि विषय को ग्रहण करने वाली भीतर की शक्ति चुक जाती है तो बाहर का आकार कितना ही सुन्दर रहे, कोई काम नहीं होता। शक्ति भीतर की होती है। बाहर से तो उसे थोड़ा पोषण मिलता है, सहारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003108
Book TitleJivan Vigyana Siddhanta aur Prayoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages236
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size9 MB
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