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________________ जीवन विज्ञान : सिद्धान्त और प्रयोग है तो दुकानों में अनाज का भंडार भरा है। राशन का नियम आया और दुकानों से अनाज गायब। सब भूमिगत हो जाता है। यह सब छिपाव के कारण होता है। यह सब ऋजुता के अभाव में होता है। प्रश्न होता है कि समाज में ऋजुता का विकास किया जा सकता है ? यदि समाज को यथार्थ के आधार पर चलना है, व्यवहार को मानवीय धरातल पर चलना है, उसे स्नेहपूर्ण और मृदुतापूर्ण बनाना है तो ऋजुता को प्रश्रय देना ही होगा और छलना, प्रवंचना, संदेह तथा अविश्वास के भूत को भगाना ही होगा। अन्यथा व्यक्ति-व्यक्ति के दुराव को हम मिटा नहीं पाएंगे। दो व्यक्ति पास-पास बैठे हैं, पर उनके मन की दूरी हजारों मील की है। दो व्यक्ति हजारों मील दूर हैं, पर उनका मन निकट है, समीप है। मन की दूरी का कारण है संदेह और छिपाना। मन की निकटता का कारण है ऋजुता और स्पष्टता। प्रत्येक व्यक्ति में अऋजुता का भाव है। यह उसकी दुर्बलता है। वह इस कमजोरी के कारण स्वार्थ और मोहवश अनेक बुराइयों में फंसता है। उसकी यह कमजोरी छूटती नहीं क्योंकि छिपाव में उसका तीव्र रस है। ४. अविसंवादिता सत्य सत्य का एक अर्थ है-अविसंवादिता अर्थात् कथनी और करनी की समानता। सामाजिक जीवन के साथ इसका बहुत बड़ा सम्बन्ध है। इससे समाज प्रभावी बनता जब तक व्यक्ति में राग-द्वेष है, प्रियता-अप्रियता का द्वन्द्व है, तब तक कथनी और करनी, ज्ञान और आचरण की दूरी मिट नहीं सकती। इनमें अविसंवादिता आ नहीं सकती। कथनी और करनी की विसंवादिता को मिटाना, ऊंचे शिखर पर आरोह करने जैसा कार्य है। जैन परम्परा में वीतराग और अवीतराग की सात कसौटियां मान्य हैं। उनमें एक है विसंवादन। जिसमें विसंवादन होता है, कथनी और करनी में समानता नहीं होती, वह है अवीतराग और जिनमें कथनी और करनी की समानता होती है, अविसंवादन होती है, वह है वीतराग। राग-ग्रस्त व्यक्ति जैसा कहता है वैसा करता नहीं। यह उसका लक्षण है। पर मात्रा में तरतमता होती है। यह एक मान्य तथ्य है कि इस दूरी को, ज्ञान और आचरण की दूरी को पूर्णत: मिटाया नहीं जा सकता, पर कम किया जा सकता है। राजनीति के क्षेत्र में वह दूरी चिन्ता का विषय नहीं है, क्योंकि वह क्षेत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003108
Book TitleJivan Vigyana Siddhanta aur Prayoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages236
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size9 MB
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