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________________ को भी संकीर्ण दायरे में कैद करके रखना चाहता है। मेरे पैर उधर कर दो. ... गुरु नानकदेव लेट रहे थे। थोड़ी ही दूर पर मस्जिद थी। नानकदेव का उधर ध्यान नहीं गया। सहसा मौलवीसाहब उधर आ गए। नानकदेव को लेटे देख आक्रोशपूर्ण शब्दावली में बोले-'कैसा बेहुदा आदमी है, जो खुदा की ओर पैर करके लेटा है! जल्दी उठाओ इसे। मस्जिद के सामने कैसे लेटना चाहिए, इस बात की भी इसे तमीज नहीं है।' नानकदेव के कानों में शब्द पड़े। वे हड़बड़ाकर उठे और अत्यंत शांतभाव से बोले-'मौलवीसाहब ! इतने नाराज क्यों हो रहे हैं ? ऐसी क्या गुस्ताखी हो गई मेरे से ?' मौलवीसाहब ने उसी आक्रोशपूर्ण भावधारा में कहा-'तुम्हें इतना भी खयाल नहीं कि मस्जिद की ओर पैर करके नहीं लेटना चाहिए। मस्जिद खुदा का स्थान है। खुदा की तरफ पैर करना भयंकर गुस्ताखी है।' बंधुओ! क्या आप जानते हैं कि नानकदेव ने क्या कहा? उन्होंने कहा-'मौलवीसाहब! सचमुच खुदा की तरफ पैर करके मैंने भूल की है। मुझे ज्ञान नहीं है कि खुदा कहां-कहां रहता है। अब कृपया आप मेरे पांव उस ओर कर दें, जिस ओर खुदा न हो।' । सुनते ही मौलवीसाहब के कान हाथ में आ गए। अब तक उन्होंने खुदा को मस्जिद की संकीर्ण चारदीवारी में कैद कर रखा था, पर आज उन्हें पहली बार खयाल आया कि खुदा तो सर्वत्र है। ऊपर-नीचे, दाएं-बाएं, इधर-उधर......."जहां देखो, वहां खुदा ही खुदा है। ऐसा कोई स्थान नहीं, ऐसी कोई दिशा नही, जो खुदा से शून्य हो। बंधुओ! यह संकीर्णता किसी स्तर पर क्यों न हो, इससे व्यक्ति की अपनी तुच्छता ही प्रकट होती है। ज्यों-ज्यों व्यक्ति संकीर्णता से मुक्त होता जाता है, उसका स्व विस्तीर्ण होता चला जाता है। संकीर्णता छोड़ना और स्व को विस्तार देना ही महात्मा बनने की प्रक्रिया है। ज्यों-ज्यों व्यक्ति महात्मा बनने की दिशा में आगे बढ़ता है, त्यों-त्यों उसका जीवन विकसित होता चला जाता है। इस क्रम में एक दिन ऐसा भी आता है, जब वह विकास के चरम शिखर पर पहुंच जाता है। यानी वह महात्मा से आगे परमात्मा बन जाता है। आत्मा : महात्मा : परमात्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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