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________________ सुनने के बाद ही चाणक्य को अपने प्रयत्न की सफलता पर श्रद्धा होने लगी। महाभिनिष्क्रमण नृत्य के पश्चात् चाणक्य ने जो शब्द कहे थे, उनके परिणाम के प्रति वह विश्वस्त था, और फिर वह स्थूलभद्र को समझाने में सफल भी हुआ था। उसका विश्वास था कि यदि स्थूलभद्र रूपकोशा को एक बार भी देख लें तो फिर वे अपने आपको नहीं रोक पायेंगे, क्योंकि दोनों कला-साधक हैं और कला-साधकों का परस्पर आकृष्ट होना स्वाभाविक है। महामात्य शकडाल मानते थे कि स्थूलभद्र के मन में रागभाव उत्पन्न करना सहज-सरल नहीं है। वर्षा ऋतु बीत चुकी थी। पृथ्वी पर अमृतरस की वर्षा करने के लिए शरद् ऋतु का आगमन हुआ। मयूर की केकाएं और पपीहे की पुकार बन्द हो गई थी। प्रिय-मिलन के लिए तरसती धरती मातृत्व की आशा से नाच रही थी। नदियां, सरोवर और झरने रूपेरी जल से छलक रहे थे। हंस की चाल में मस्ती थी, हाथी की चाल में क्रीड़ा थी, चकोर के नयनों में शरद्-चन्द्र से मिलने की आशा थी। वन, उपवन और छोटे-छोटे खेत नीली चादर ओढ़कर अपने यौवन का अवगुण्ठन कर रहे थे। रसिकजन अंगराग में चंदन, कपूर, श्रीगंध आदि द्रव्यों का उपयोग कर रहे थे। मेहंदी और सत्वार्क से रूपकोशा का विलासभवन सुरभित हो रहा था। पाटलीपुत्र के वैद्यकीय विभाग से ऋतु के अनुसार खान-पान के नियम प्रसारित हो गए थे। राजनर्तकी के प्रतिष्ठा उत्सव को देखने के लिए दूर-दूर से संगीतरसिक आ रहे थे। पाटलीपुत्र की अनेक पांथशालाएं देश-विदेश के लोगों से मुखरित हो रही थीं। विशेष अतिथियों के लिए भिन्न आवासों में व्यवस्था थी। सारे राज्यकर्मचारी उनके आतिथ्य में लग रहे थे। मगध-सम्राट् का भव्य रंगमंडप तैयार हो चुका था। आर्य स्थूलभद्र और कोशा ८४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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