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________________ 'देवी! ये शब्द उद्दालक के हैं.....' चित्रा ने संकोचवश कहा। 'और यह परिचय भी !' युवती ने चित्रा को देखते हुए कहा । चित्रा मौन रही । नौका तीर के वेग से गंगा के प्रवाह को चीरती हुई आगे बढ़ रही थी । युवती ने रंगभरी छटा से कहा, 'तेरा उद्दालक ! चित्रा ! मंत्रीपुत्र लज्जालु है, ऐसा उद्दालक ने कैसे जाना ?' कहने के लिए बहुत हो, हृदय छटपटा रहा हो, फिर भी कुछ नहीं कहा जा सकता - ऐसी भावना को संजोती हुई चित्रा ने मानवलोक की उर्वशी नवयौवना की ओर देखा। युवती ने हंसते हुए कहा, 'चित्रा ! निश्चित ही तू भाग्यशालिनी है...... और तेरा उद्दालक भी....' चित्रा के नयन अकुलाहट का अनुभव करने लगे। रूपांगना ने मृदुमधुर स्वर में कहा - 'चित्रा ! प्रणय-संवेदन का आनन्द संगीत और काव्य से भी अधिक मधुर होता है- क्या इस संवेदन के पीछे सुख और तृप्ति छिपी हुई नहीं होती ?' चित्रा मौन रही । क्या उत्तर देती ? उसकी दृष्टि नत हो गई। उसके गालों पर लज्जा और संकोच की रेखाएं उभर आयीं । नवयौवना ने चित्रा के मनोभावों को भांप लिया। उसने माधवी से कहा- 'मेरे लिए गूंथी हुई पारिजात पुष्पों की माला को चित्रा के कण्ठ में डाल दे।' चित्रा ने कृत्रिम भय से नवयौवना की ओर देखा। देवी ने कहा, 'पारिजात पुष्पों की सौरभ तेरे नवोदित यौवन को उभारेगी।' नौका किनारे पर पहुंची। माधवी ने पारिजात पुष्पों की माला चित्रा के गले में डाल दी । वत्सक ने प्रार्थना - भरे स्वर में कहा, 'देवी....' 'चलो हम तैयार हैं। क्या किनारे पर कोई आया है ?' नवयौवना ने उठते-उठते कहा । 'माताजी आयी हों, ऐसा लगता है'-वत्सक ने कहा । 'मां !' कहते-कहते युवती चंचल हो गई। आर्य स्थूलभद्र और कोशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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