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________________ १८ जीव-अजीव हैं कि हमारा पतन तो रुक जाएगा और क्रमशः ऊंचे-ऊंचे उठते जाएंगे जब तक कि जीवन के लक्ष्य को प्राप्त न कर लें। आत्मा किसी रहस्यमय शक्तिशाली व्यक्ति की शक्ति और इच्छा के अधीन नहीं है। उसे अपनी अभिलाषाओं की पूर्ति के लिए शक्तिशाली सत्ता (ईश्वर) का दरवाजा खटखटाने की जरूरत नहीं है। आत्मोत्थान के लिए या पापों का नाश करने के लिए हमें किसी भी शक्ति के आगे न तो दया की भीख मांगने की जरूरत है और न उसके सामने रोने, गिड़गिड़ाने या मस्तक झुकाने की। कर्मवाद हमें बताता है कि संसार की सभी आत्माएं एक समान हैं, सभी में एक-सी शक्तियां विद्यमान हैं। चेतन जगत् में जो भेदभाव दिखाई पड़ता है, उसका कारण इन आत्मिक शक्तियों का न्यूनाधिक विकास ही है। कर्मवाद के अनुसार विकास की सर्वोच्च सीमा को प्राप्त व्यक्ति ही ईश्वर है, परमात्मा है। हमारी शक्तियां कर्मों से आवृत हैं, अविकसित हैं, परन्तु आत्म-बल के द्वारा कर्म का आवरण दूर हो सकता है और इन शक्तियों का विकास किया जा सकता है। विकास के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचकर हम परमात्मस्वरूप को भी प्राप्त कर सकते हैं। प्रत्येक आत्मा प्रयत्न-विशेष से परमात्मा बन सकती है। जैन-दर्शन में किसी भी कार्य की उत्पत्ति के लिए कर्म और उद्योग--ये दो ही नहीं, परन्तु पांच कारण माने गये हैं, जैसे--काल,स्वभाव, कर्म, पुरुषार्थ और नियति। काल ___ भाग्य, पुरुषार्थ या स्वभाव--कोई भी काल के बिना कार्य नहीं कर सकता। शुभाशुभ कर्मों का फल तुरन्त ही नहीं मिलता, परन्तु कालांतर में नियत समय पर ही मिलता है। एक नवजात शिशु को बोलना या चलना सिखाने के लिए चाहे कितना ही उद्योग और प्रयत्न किया जाए, वह जन्मते ही बोलना या चलना नहीं सीख सकता । वह काल या समय पाकर ही सीखेगा। दवा पीते ही रोग से आराम नहीं होता, समय लगता है। आम की गुठली में महावृक्ष के रूप में परिणत होने तथा हजारों आम उत्पन्न करने का स्वभाव है, परन्तु फिर भी उसे बोने के साथ ही फल नहीं मिलता, समय लगता है। - प्रत्येक वस्तु को उत्पन्न करनेवाला, स्थिर करने वाला, संहार करने वाला संयोग में वियोग और वियोग में संयोग करने वाला काल ही है। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003096
Book TitleJiva Ajiva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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