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________________ नौवां बोल ४१ करने में मन भी असमर्थ है। कान, जीभ, नाक और त्वचा (स्पर्शन)-ये चार इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं-विषय के साथ संयोग होने से ही ये उसको ग्रहण कर सकती हैं। जब तक शब्द के पुद्गल कान में न पड़ें, चीनी जीभ पर न रखी जाए, पुष्प की गन्ध के पुद्गल नाक से न सूघे जाएं, जल शरीर को न छुए, तब तक न तो शब्द ही सुनाई देगा, न चीनी का स्वाद ही आएगा, न फूल की सुगन्ध ही ज्ञात होगी और न जल ही ठण्डा या गरम जान पड़ेगा। आंख और मन अप्राप्यकारी हैं। उनके व्यंजनावग्रह नहीं होता। ये दोनों संयोग के बिना ही उचित सामीप्य मात्र से ग्राह्य विषय को जान लेते हैं। काफी दूरी से भी नेत्र वृक्ष, पर्वत आदि को ग्रहण कर लेता है और मन तो हजारों कोस स्थित वस्तु का भी चिन्तन कर लेता है। अतः नेत्र तथा मन अप्राप्यकारी माने गए हैं। २. श्रुतज्ञान-जो ज्ञान श्रुतानुसारी है--जिससे शब्द-अर्थ का सम्बन्ध जाना जाता है और जो मतिज्ञान के बाद होता है, वह श्रुतज्ञान है। अग्नि शब्द को सुनकर यह जानना कि यह शब्द अग्नि का बोधक है अथवा अग्नि देखकर यह विचार करना कि यह अग्नि शब्द का अर्थ है-इस प्रकार शब्द से अर्थ का और अर्थ से शब्द का ज्ञान करना तथा उससे सम्बन्ध रखने वाली अन्य-अन्य बातों पर विचार करना श्रुतज्ञान है। __ मति और श्रुतज्ञान का गाढ़तम सम्बन्ध है। इन दोनों को अलग-अलग करना सम्भव नहीं। ये दोनों कार्य-कारण के रूप में हैं। मतिज्ञान कारण है, श्रुतज्ञान कार्य है। मति ज्ञान केवल मनन है और स्वयं के लिए उपयोगी है। वह मनन वर्णमाला के योग से श्रुतज्ञान हो जाता है और आदेश, उपदेश आदि अनेक रूप से दूसरों के लिए उपयोगी बन जाता है। आदेश-उपदेश के सम्बन्ध में जो बोलना होता है वह श्रुतज्ञान नहीं, वह वचनयोग है, किन्तु बोलने का जो अर्थ है वह श्रुतज्ञान है और शब्द उस अर्थ को प्रकट करने का साधन है और वह द्रव्यश्रुत है। ३. अवधिज्ञान-इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा से जो ज्ञान मूर्च-पदार्थों (पुद्गलों) को जानता है, उसे अवधिज्ञान कहते हैं। अवधिज्ञानी सूक्ष्म से सूक्ष्म पुद्गलों को जान लेता है। ४. मनःपर्यवज्ञान-इंद्रिय और मन की सहायता के बिना द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा से जो ज्ञान समनस्क (संज्ञी) जीवों के मन में रहे हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003096
Book TitleJiva Ajiva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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