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________________ १३४ जीव-अजीव __अस्तेय-अणुव्रत-डाका डालकर, ताला तोड़कर, लूट-खसोटकर, बड़ी चोरी का त्याग करना अस्तेय-अणुव्रत है। जिस चोरी से राज्य-दण्ड मिले और लोग निन्दा करे वैसी चोरी बड़ी घृणित वस्तु है। उसे छोड़ना प्रत्येक श्रावक का ही नहीं, प्रत्येक सभ्य व्यक्ति का कर्तव्य है। ब्रह्मचर्य-अणुव्रत-कामुकता की सीमा करना ब्रह्मचर्य-अणुव्रत है। वैश्या-गमन और पर-स्त्री-संभोग का त्याग करना व अपनी स्त्री के साथ भी संभोग की मर्यादा करना ब्रह्मचर्य-अणुव्रत है। इसी प्रकार स्त्री भी पर-पुरुष संभोग का त्याग करती है और अपने पति के साथ भी संभोग की मर्यादा करती है। कामुकता का जितने अंशों में त्याग किया जाता है, वह ब्रह्मचर्य-अणुव्रत अपरिग्रह-अणुव्रत-सोना, चांदी, मकान, धन आदि सब परिग्रह हैं। परिग्रह के संचय की मर्यादा करना अपरिग्रह-अणुव्रत है। दुनिया में धन-संपदा की कोई सीमा नहीं। मानव ज्यों-ज्यों उसका संचय करता है, लालसा बढ़ती ही जाती है। इस बढ़ती हुई लालसा को रोकने के लिए इस अपरिग्रह-अणुव्रत का विधान है। कहीं न कहीं तो आदमी को सन्तोष करना ही चाहिए। उपरोक्त पांच अणुव्रतों की पुष्टि के लिए क्रमशः तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत हैं। दिग्विरति-व्रत-पूर्व, पश्चिम आदि सभी दिशाओं का परिमाण निश्चित कर उसके बाहर हर तरह के सावद्य-कार्य करने का त्याग करना दिग्विरतिव्रत भोगोपभोग-परिमाण-व्रत-पन्द्रह प्रकार के कर्मादान' और छब्बीस प्रकार के भोगोपभोग की प्रवृत्ति की मर्यादा करना भोगपभोग-परिमाण-व्रत है। अनर्थ-दण्ड-विरतिव्रत-अपने प्रयोजन के लिए मनुष्य हिंसा किए बिना नहीं रह पाता किन्तु बिना प्रयोजन हिंसा करना कहां तक उचित है? बिना प्रयोजन हिंसा में प्रवृत्ति करने का त्याग करना अमर्थ-दण्ड-विरति-व्रत है। सामायिक-व्रत-एक मुहूर्त तक सावद्य-प्रवृत्ति का त्याग कर स्वभाव में स्थिर होने का अभ्यास करना सामायिक-व्रत है। देशावकाशिक-व्रत-एक निश्चित अवधि के लिए हिंसा आदि का त्याग करना देशावकाशिक-व्रत है। आठ व्रतों में जो त्याग किए जाते हैं, वे जीवन १. पन्द्रह कर्मादान और छब्बीस भोगोपभोग की जानकारी के लिए समाजभूषण श्री छोगमलजी चोपड़ा द्वारा सम्पादित 'श्रावक व्रतधारण विधि' पुस्तक देखें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003096
Book TitleJiva Ajiva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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