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________________ मोक्ष-धर्म का विशुद्ध रूप : १०६ जिनकी दृष्टि विशुद्ध होती है वे उसे प्रत्यक्ष देख लेते हैं। धर्म इसलिए किया जाना चाहिए कि आत्मा इन दोनों आवरणों से मुक्त हो। . जैन-परम्परा में एक मान्यता थी कि अमुक कार्यों में धर्म होता है और अमुक-अमुक कार्यों में धर्म नहीं होता, कोरा पुण्य होता है। आचार्य भिक्षु ने इसे मान्यता नहीं दी। उन्होंने कहा-कोरा पुण्य नहीं होता। पुण्य का बन्धन वहीं होता है जहां धर्म की प्रवृत्ति होती है। धर्म मुक्ति का हेतु है इसलिए उससे पुण्य का बन्धन नहीं होता। मुक्ति और बन्धन दोनों साथ-साथ चलें तो मुक्ति हो ही नहीं सकती। धर्म की पूर्णता प्राप्त नहीं होती तब तक उसके साथ पुण्य का बन्धन होता है और धर्म की पूर्णता प्राप्त होती है तब पुण्य का बन्धन भी रुक जाता है। बन्धन रुकने के पश्चात् मुक्ति होती है। पुण्य की स्वतंत्र मान्यता के आधार पर जैनों में कई परम्पराएं चल पड़ीं। कुछ लोग खिलाकर उपवास करवाते थे। उनका विश्वास था कि ये उपवास करेंगे, इसका लाभ मिलेगा। आचार्य भिक्षु ने इसका तीव्र प्रतिवाद किया। उन्होंने यह स्मरण कराया कि धर्म खरीदने-बेचने की वस्तु नहीं है। उसका विनियम नहीं होता। दूसरे का किया हुआ धर्म और अधर्म अपना नहीं होता। ऐसा विश्वास इतर धर्मों में भी रहा है। जैसे छ लोग समझने लगते हैं कि धर्मभाव और पुण्य खरीदने-बेचने की चीज है। ब्राह्मण को दक्षिणा दी, उसने यज्ञ और जाप किया और उसका फल दक्षिणा देनेवाले के हिसाब में जमा हो गया। रोम के पोप की ओर से क्षमा-पत्र बेचे जाते थे। खरीदने वाले समझते थे कि वे क्षमा-पत्र उन्हें परलोक में पाप-दण्ड से बचा देंगे। इस प्रकार का विश्वास दाक्षणिक बन्धन है। ____ आचार्य भिक्षु ने इस विचार के विरुद्ध जो क्रान्ति की, वह उनकी एक बहुमूल्य देन है। इससे मनुष्य की अपनी पूर्ण स्वतन्त्र सत्ता और अपने पुरुषार्थ में विश्वास उत्पन्न होता है। - १. व्रताव्रत, १६.२७ पेला रो लगायो तो पाप ने लागे, आपरो लगायो पापज तागे जी। सावध जोग दोयां रा जुआ-जुआ वरत्या, त्यांरो पाप लागो छे सागे जी॥ २. दर्शन संग्रह (डॉ. दीवानचन्द). प. ५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003095
Book TitleBhikshu Vichar Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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