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________________ मोक्ष-धर्म का विशुद्ध रूप : १०३ कुछ लोग कहते थे, जिसे उपदेश न दिया जा सके अथवा समझाने पर भी जिसका हृदय न बदले, उसे हिंसा से बलपूर्वक रोकना भी धर्म है । आचार्य भिक्षु ने कहा- एक के चांटा मारना और दूसरे का उपद्रव मिटाना, यह रोगद्वेष का कार्य है । ' I समाज में ऐसा होता है पर इसे धर्म की कोटि में नहीं रखा जा सकता । गृहस्थ जो कुछ करता है, वह धर्म ही करता है, ऐसा नहीं है । सामाजिक जीवन को एक अनात्मवादी सुचारु रूप से चला सकता है। समाज के क्षेत्र में दायित्व और कर्त्तव्य का जितना व्यापक महत्त्व है, उतना धर्म का नहीं । धर्म वैयक्तिक वस्तु है । यद्यपि उसका परिणाम समाज पर भी होता है, पर उसका मूल व्यक्तिहित में सुरक्षित है। उसकी आराधना व्यक्तिगत होती है. और वह व्यक्ति के ही पवित्र हृदय से उत्पन्न होता है । अनात्मवादी की दृष्टि में धर्म का कोई स्वतः सम्मत मूल्य नहीं होता, जबकि समाज के प्रति होने वाले दायित्वों और कर्त्तव्यों का उसकी दृष्टि में भी मूल्य होता है । इसलिए यह तर्क भी बहुत मूल्यवान् नहीं है कि समाज के लिए आवश्यक कर्त्तव्यों को धर्म का चोगा पहनाये बिना समाज-व्यवस्था सुन्दर ढंग से नहीं चल सकती । सम्भव है कभी ऐसा अनुभव किया गया हो, पर आज के बुद्धिवादी युग में ऐसा करना आवश्यक नहीं है. कुछ लोग कहते थे - हम जीवों की रक्षा के लिए उपदेश देते हैं, इससे बहुत जीवों को सुख होता है। आचार्य भिक्षु ने कहा- हम हिंसक को पाप से बचाने के लिए उपदेश देते हैं । एक व्यक्ति समझकर हिंसा को छोड़ता है, तब ज्ञानी जानता है कि इसे सुख मिला है; इसका जन्म-मरण का संकट १. अणुकम्पा : २.१७ : एकण रे दे रे चपेटी, एकण रो दे उपद्रव मेटी । ए तो राग द्वेषनो चालो, दसवैकालिक संभालो ॥ २. वही, ५. १६.१७ : हिवे कोइक अग्यानी इम कहे, छ काय काजे हो द्यां छां धर्म उपदेस । एकण जीव ने समझावीयां मिट जाए हो घणां जीवां रो कलेश ॥ छ काय घरे साता हुइ, एहवो भाप हो अणतीरथी त्यां भेद न पायो जिण धर्म रो, ते तो भूला हो उदे आयो मोह धर्म । कर्म ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003095
Book TitleBhikshu Vichar Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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