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________________ रचनात्मक भय दिन और रात, रात और दिन-दोनों के बीच में संध्या। रात होती है, दिन होता है, बीच में संध्या होती है। भय और अभय के बीच में भी एक संध्या होती है, उसे न भय कहा जा सकता है, न अभय कहा जा सकता है। भय इसलिए नहीं कहा जा सकता कि भय के द्वारा नाड़ी-संस्थान में जो विकृतियां पैदा होती हैं, भावनात्मक असंतुलन पैदा होता है वह उससे नहीं होता। उसे शुद्ध अभय भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अभय साधना की बहुत ऊंची अवस्थिति है। भय और अभय दोनों के बीच में एक पूर्वोदय होता है, संध्या का संक्रमण होता है-वह है रचनात्मक भय । एक ध्वंसात्मक भय और एक रचनात्मक भय, एक ध्वंसात्मक अभय और एक रचनात्मक अभय-ये चार विकल्प बनते हैं। अभय भी ध्वंसात्मक होता है। सारे अभय रचनात्मक ही नहीं होते, ध्वंसात्मक भी होते हैं। चोर बहुत निडर था। कोई परवाह नहीं थी उसे। चाहे जैसा चोरी करता, दंड मिलता और छूटता, फिर चोरी में लग जाता। तनिक भी भय नहीं था। एक बार न्यायाधीश ने कहा-कितने निर्लज्ज हो ! तुम्हें बार-बार मेरी अदालत में आते हुए शर्म नहीं आती ? लज्जा नहीं आती ? वह बोला-न्यायाधीश महोदय ! मैं भी जितनी बार आता हूं आप ही को देखता हूं। आप भी तो यहां रोज-रोज आते हैं। मुझे फिर क्या लज्जा होगी? लज्जा, अनुशासन और मानसिक संकोच-रचनात्मक भय के ही नाम हैं। रचनात्मक भय को हम लज्जा कह सकते हैं, अनुशासन कह सकते हैं, मानसिक संकोच कह सकते हैं। मानसिक संकोच है--आदमी बुरा काम नहीं करता। आत्मानुशासन नहीं बना है किन्तु फिर भी अनुशासन है। बड़े लोगों का निषेध है, ऐसा काम नहीं करना चाहिए। हमारे विद्या-गुरुओं का निषेध है कि ऐसा काम नहीं करना चाहिए। बड़े-बूढे लोग कहते हैं कि यह काम नहीं करना चाहिए, इसलिए नहीं करता, यह भी रचनात्मक भय है, एक पार्नामक लज्जा है। यह काम करूं,' कोई देख लेगा। लज्जावश भी वह कोई बुरा काम नहीं करता। भय है मन में कि कोई देख लेगा। शुद्ध दृष्टि नहीं है, आध्यात्मिक दृष्टि नहीं है कि कोई देखे या न देखे यह काम नहीं करना चाहिए। ऐसी दृष्टि नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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