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________________ २१८ है। मरने वाले से मारने वाला अधिक डरता है । राजा भयभीत हो गया। घोड़े से उतरा और मुनि के चरणों में जा गिरा । मुनि ने कायोत्सर्ग पूरा किया। राजा ने हाथ जोड़ कर कहा 'महाराज' ! क्षमा करें। मुझे तो पता नहीं था कि यह हिरण आपका है । अनजाने में मैंने इसको मार डाला। अब आप मुझे क्षमा का दान दें। मुनि शांत थे । उन्होंने मृदु स्वरों में कहा'अभओ पत्थिवा तुम्भं, अभयदाया भवाहि य । अणिच्चे जीवलोगम्मि, किं हिंसाए पसज्जसि ? ।। कैसे सोचें ? - राजन ! मैं तुम्हें अभयदान देता हूं, किन्तु दान को स्वीकार करने की क्षमता होनी चाहिए। यह क्षमता तब जागेगी जब तुम स्वयं अभयदान देने लग जाओगे । सब तुमसे भयभीत हैं। यह मत समझो कि एक हिरण ही तुमसे डरा है, सारा संसार तुमसे डर रहा है। तुम भी अभय देना सीखो। तुम दूसरों को अभय का दान करोगे तो मेरा अभय का दान तुमको प्राप्त होगा। राजन् ! मैं नहीं समझ पाया कि इस अनित्य जीवन के लिए तुम इतनी हिंसा क्यों कर रहे हो ? क्या तुम शाश्वत हो ? क्या तुम अमर रहोगे ? क्या तुम नहीं भरोगे ? सोचो और समझो। कोई शाश्वत और अमर रहने वाला नहीं है । फिर तुम क्यों इतनी हिंसा करते हो ? 1 अभय का दान वही व्यक्ति दे सकता है जिसने स्वयं अभय प्राप्त किया है और जिसमें से अभय की तरंगें निकलती हैं। वे तरंगें आस-पास के सारे वातावरण में अभय का विकिरण करती हैं। वही व्यक्ति अभय हो सकता है जो अभय का दान करता है । वही व्यक्ति अभय का दान कर सकता है जो अभय होता है । भय बहुत बड़ा संवेग है । इससे छुटकारा पाना बहुत आवश्यक है । अभय के द्वारा ही भय को समाप्त किया जा सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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