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________________ विधेयात्मक भाव १८३ यदि किसी केवली को राज्य का संचालक बना दिया जाय तो राज्य दूसरे ही दिन किसी दूसरे के हाथ में चला जायेगा। केवली निष्पक्ष होता है। न किसी के प्रति राग, न किसी के प्रति द्वेष, न इधर, न उधर । ऐसे व्यक्ति से राज्य का संचालन नहीं हो सकता। उसे न आक्रमण की चिन्ता सताती है और न जमीन-जायदाद की चिन्ता सताती है। कोई हिमालय पर कब्जा कर ले तो वह चिंतित नहीं होता और कोई मूल विभाग हड़प ले तो वह चिंतित नहीं होता। वह सब सीमाओं से अतीत होता है। उसे राज्य की चिन्ता ही नहीं होती। इन सारी व्यवस्थाओं, जीवन की व्यवस्थाओं और जीवन का सारा संचालन राग और द्वेष-इन दो दोषों द्वारा होता है। यह सुनकर अचम्भा हो सकता है कि एक मुनि, एक आचार्य कैसे बातें कर रहे हैं ? मुझे समर्थन वीतराग का करना चाहिए था, केवली का करना चाहिए था। किन्तु यह यथार्थ है. इसीलिए जैनाचार्यों ने एक शब्द की संयोजना की-प्रशस्त राग अप्रशस्त राग, प्रशस्त द्वेष अप्रशस्त द्वेष। उन्होंने राग को भी प्रशस्त और अप्रशस्त तथा द्वेष को भी प्रशस्त और अप्रशस्त बना दिया। गौतम महावीर के प्रति राग रखते थे, भक्ति रखते थे। कैसे हिम्मत हो उसे बुरा कहने की। कैसे बुरा कहा जा सकता है? दूसरे को कहा जा सकता है, पर जहां राग के पात्र हों महावीर तब कैसे बुरा बताया जा सकता है ? तब आचार्य ने उसे प्रशस्त राग कहकर पुकारा। इतना मान्य हो सकता है। जीवन को चलाने के लिए इसे अस्वीकार कैसे किया जाये ? इसके बिना जीवन कैसे चले ? जीवन को चलाने के लिए भक्ति की जरूरत है, जीवन को प्रेरणा देने के लिए अनुराग की जरूरत है, प्रेम की जरूरत है। इन्हें अस्वीकार कैसे किया जाए ? आगमों में कहा गया है कि धार्मिक व्यक्ति की अस्थि और मज्जा धर्म के प्रेम से और अनुराग से रंजित होती है। वह इनसे रंगा हुआ होता है। रंगा हुआ व्यक्ति वीतराग तो नहीं हो सकता, पर इसे प्रशस्त राग माना गया है। राग और द्वेष दोनों प्रशस्त हो सकते हैं। एक आचार्य अपने शिष्य को उलाहना दे रहे हैं। शिष्य ने अपराध किया। आचार्य की भृकुटी तन गई, आंखें लाल हो गईं। शिष्य कांप रहा है। यह प्रशस्त द्वेष की प्रवृत्ति है। इस प्रकार राग भी प्रशस्त और अप्रशस्त होता है तो द्वेष भी प्रशस्त और अप्रशस्त-दोनों होते हैं। कोई व्यक्ति घृणा या तिरस्कारवश किसी को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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