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________________ सर्वतोमुखी आत्मविकास का उपाय : तप ४६ जैसे फूटे बर्तन में दूध दुहने से पल्ले कुछ नहीं पड़ता, पशु पालने और दुहने का श्रम निरर्थक चला जाता है। इसी प्रकार आत्मा में पापास्रवों के छिद्र रहते या दोषों-अपराधों के रहते आत्मसाधना करने का श्रम निरर्थक चला जाता है । गन्दे नाले में थोड़ा-सा गंगाजल डाल देने से उसकी शुद्धि नहीं होती, इसी प्रकार अन्तरंग और बहिरंग जीवन में निकृष्टता भरी रहे तो किसी भी अध्यात्म-साधना का लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता । मैले-कुचैले चिकने एवं गन्दगी भरे कपड़े पर कोई अच्छा रंग चढ़ाना चाहे तो चढ़ नहीं सकता, उसी प्रकार राग-द्वेष-कषायादि से मलिन अन्तःकरण या कर्मों से मलिन आत्मा पर कोई धर्म-साधना का रंग चढ़ाना चाहे तो उसे भी सफलता मिलनी कठिन है । उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्ट कहा है 'धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ' _ 'शुद्ध हृदय या परिष्कृत आत्मा पर ही धर्म का रंग ठहरता है।' इस दृष्टि से आत्मपरिष्कार कपड़े की धुलाई है और आत्मसाधना रंगाई है। अतः साधना का प्रारम्भ आत्मशोधन एवं आत्मपरिष्कार से होना चाहिए। न केवल अध्यात्म क्षेत्र में, वरन् भौतिक क्षेत्र में भी यही सिद्धान्त अपनाते देखा गया है । रक्त विकार जैसे रोगों के निवारण के लिए कुशल वैद्य पेट की सफाई करने के बाद ही रक्तशोधन चिकित्सा करते हैं । कायाकल्प-चिकित्सा में रोगी को बलवर्द्धक औषधियाँ देने से पहले वमन, विरेचन, स्वेदन आदि क्रियाओं द्वारा मल-निष्कासन का प्रयास किया जाता है। इसी प्रकार कुशल मालो या किसान बीजारोपण से पूर्व भूमिशोधन करते हैं । भूमि को अच्छी तरह जोतकर, कंकड़-पत्थर, झाड़-झंखाड़ हटा कर, खरपतवार उखाड़ कर तथा नमी रखकर एवं खाद देकर इस योग्य बनाया जाता है, कि उसमें बोया हआ बीज अच्छी तरह उग सके । यदि जल्दी फसल कमाने के लोभ में भूमिशोधन कार्य नहीं किया गया है तो उस किसान या माली का भूमि-साधना का श्रम व्यर्थ चला जाता है । जिस भूमि-साधना में प्रारम्भ में श्रम बचाने की बुद्धिमानी समझी गई थी, वहाँ बाद में उसमें बीज भी गँवा वैठने की निराशा ही हाथ लगती है। अतः साधना का बीज बोने से पूर्व आत्मभूमि का परिशोधन होना आवश्यक है। दुष्कर्मों के कारण चित्त पर जमे हुए कुसंस्कारों की मोटी परतें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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