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________________ ४४ तमसो मा ज्योतिर्गमय करते हैं । दूसरे शब्दों में कहें तो जीवन सुविधाजनक प्रवाहों में बहता हुआ, ऐसे ही निरर्थक व्यतीत हो जाता है, तपःसाधना द्वारा किये गए अवरोध आत्मा में शक्ति भरते हैं । अवरोध की शक्ति सर्व विवित है। हवा के प्रवाह से टकराकर पनचक्कियाँ चलती हैं, पाल से बँधी नौकाएँ द्रत गति से दौड़ती दिखती हैं । विपरीत दिशा में चलती हुई मशीनों की रोकथाम न की जाए तो दुर्घटना उत्पन्न कर सकती हैं । बारुद कारतूस में बन्द न करके दागी जाती है, तो बिखरी स्थिति में होकर केवल चमकभर उत्पन्न होगी, निर्दिष्ट दिशा में गोली नहीं छूटेगी। सुविधाजनक जीवन पर रोकथाम करके उसे कठोर तितिक्षाओं की ओर मोड़ने से आत्मिक शक्ति का प्रचण्ड होना स्वाभाविक है । अतः तपःसाधना का उद्देश्य सुविधाओं पर रोक लगाकर कठोर जीवन व्यतीत करना है । _ सुविधाएँ मनुष्य को प्रायः आलसी और दुर्बल बना देती हैं और असुविधाओं में जीवन व्यतीत करने वाला तपस्वी आत्मबली बनता है। सुविधा भरे जीवन में कठिनाइयों से लड़ने का अवसर नहीं मिलता, फलतः ऐसे लोगों की प्रतिभा प्रसुप्त रहती है, आत्मा भी शक्तिशाली, एवं सहनशील नहीं बनती । प्रायः यह अनुभव सब को होता है कि सर्दी-गर्मी से डर कर हीटर और कूलर के सहारे वातानुकूलित कमरों में निवास करने वाले लोग उस समय तो आराम महसूस करते हैं । परन्तु उनकी सहनशक्ति कमजोर पड़ जाने से तनिक-सा ऋतु-प्रभाव सहन नहीं कर सकते । ऐसे लोगों को तनिक-सी सर्दी में जकाम एवं तनिक-सी गर्मी में जलन की शिकायत धर दबाती है। अधिक कपड़ों से लदे रहने वालों की अपेक्षा जो कम कपड़े पहनते हैं, वे सर्दी-गर्मी सहने के अभ्यस्त होते हैं । ऋतु के प्रभाव से वे पीड़ित नहीं होते । अतः यह स्पष्ट है कि असुविधा भरा जीवन व्यतीत करने वाले तपःसाधकों की प्रखरता निखरती है, जवकि अमीरी के वातावरण में रहने वाले की प्रतिभा बहुत कम उभरती है। ___ सुख-सुविधापूर्ण जीवन बिताने वालों की आवश्यकताएँ बढ़ी-चढ़ी होती हैं, वे मितव्ययी और सादगी से न्याय-नीतिमय जीवन गुजारने के अभ्यस्त नहीं होते । ऐसी स्थिति में उनका तप-तितिक्षा से शून्य जीवन प्रायः अधिक कमाने एवं अधिक भोगने के कुचक्र में ही समाप्त हो जाता है। परन्तु संयम और सादगी से जीवन बिताने वाले तपःसाधक परमार्थ-प्रयोजनों में, आत्मशक्ति को प्रखर बनाने में अपने समय, चिन्तन, साधन एवं श्रम का महत्वपूर्ण अंश लगा सकते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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