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________________ ३२ तमसो मा ज्योतिर्गमय बुरी प्रत्येक वस्तु अपनी मनःस्थिति के अनुकूल ही दिखाई देती है। दुनिया के दूसरे लोगों की अच्छाइयाँ और बुराइयाँ जो हमें दिखाई पड़ रही हैं. वैसी वे सब नहीं हैं, अपितु हमारे अपने मन की प्रतिच्छाया मात्र हैं । व्यक्ति की दोषदृष्टि एवं गुणदृष्टि ही दूसरों में अच्छाइयाँ या बुराइयाँ देखने में मुख्य कारण हैं । अगर छिद्रान्वेषण की दृष्टि है तो दूसरों के गुणों को दोष. रूप में देखेगी, और यदि गुणग्राहकता की दृष्टि है, तो वह दूसरों के दोषों में से भी गुण ढूँढ़ेगी। एक बार गुरु द्रोणाचार्य ने अपने शिष्य दुर्योधन को नगर में से अच्छे व्यक्ति और युधिष्ठिर को बुरे व्यक्ति ढूंढ़ लाने को कहा था किन्तु दिनभर इधर-उधर भटकने पर भी दुर्योधन को कोई अच्छा व्यक्ति नहीं मिला और न ही युधिष्ठिर को कोई बुरा व्यक्ति मिला। क्या नगर में कोई भी अच्छा या बुरा व्यक्ति नहीं था ? अवश्य था। लेकिन दुर्योधन की दृष्टि सब में कोई न कोई बुराई देखने की थी, जबकि युधिष्ठिर की दृष्टि सबमें कोई न कोई अच्छाई देखने की थी। इसलिए दुर्योधन को सभी लोग बुरे ही बुरे और युधिष्ठिर को सभी अच्छे ही अच्छे दिखाई दिये। अतः गुण या दोष अथवा अच्छी या बुरी परिस्थितियाँ, जो हमारे सामने आती हैं, उनका मूल कारण हम स्वयं ही हैं। हमारी जैसी दृष्टि होती है, वैसी ही अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति हम समझने लगते हैं । जो संसार बुरे व्यक्तियों के लिए बुरा है, वही अच्छे व्यक्तियों के लिए सद्गुण एवं सदाचार से भरा हुआ कार्यक्षेत्र बन जाता है । वास्तव में संसार न तो अपने आप में किसी के लिए दुःख का हेतु है और न ही सुख का हेतु । यों तो संसार कुछ है ही नहीं, इसीलिए उसे असार कहा जाता है। किन्तु ज्ञानी और सम्यग्दृष्टि साधक इसो असार संसार में मनुष्य-जन्म पाकर ज्ञान-दर्शन-चारित्र एवं तप की आराधना-साधना करके उसे साररूप बना लेते हैं। व्यक्ति की अपनी सम्यक मनःस्थिति ही संसार रूपी दर्पण में प्रतिबिम्बित होती है, वही संसार को या संसार के सजीव-निर्जीव पदार्थ को भिन्न-भिन्न रूप में देखती है। _ क्रोधी व्यक्ति को संसार के सभी लोग क्रोधी और चिड़चिड़े स्वभाव के दिखाई देते हैं। झगड़ालू और सनकी व्यक्तियों को अपने चारों ओर के सभी व्यक्ति सदैव लड़ते-झगड़ते एवं सनकी दिखाई देते हैं। जो व्यक्ति आलसी और निकम्मा है, उसे दुनिया में कोई सत्कार्य करने को नहीं मालूम होता। जो व्यक्ति शरीर से अस्वस्थ है, उसे सभी प्रकार के भोजन अरुचि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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