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________________ २२० तमसो मा ज्योतिर्गमय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से देखें तो करने, कराने और अनुमोदन इन तीनों के द्वारा होने वाले पापबन्ध में बहत अन्तर दीखेगा। स्वयं हाथ से विवेकपूर्वक आरम्भ मनुष्य कितना भी करे, फिर भी एक सीमा में होगा, लेकिन कराने में तो लाखों-करोड़ों से भी करने के लिए कहा जा सकता है। करने में तो दो हाथ ही लगेंगे, लेकिन कराने में तो लाखों-करोड़ों हाथ लग सकते हैं। करने में तो समय भी मर्यादित रहेगा, लेकिन कराने में तो समय का कोई विचार नहीं रह सकता। इसी प्रकार करने का क्षेत्र सीमित रहेगा, लेकिन कराने में क्षेत्र की सीमा बहुत अधिक हो सकती है । इस दृष्टि से करने के द्रव्य, क्षेत्र और काल तीनों मर्यादित रहते हैं, जबकि कराने के द्रव्य, क्षेत्र और काल की कोई सीमा निर्धारित नहीं होती। और अनुमोदन का द्रव्य, क्षेत्र और काल तो करने और कराने दोनों से बढ़ कर होता है । बल्कि अनुमोदन का पाप तो प्रायः ऐसा होता है कि किया-कराया कुछ नहीं और मुफ्त में अधिक पाप का बन्ध हो जाता है । जैसे कि भगवती सूत्र के २४वें शतक में वर्णित तन्दुलमत्स्य का वर्णन है। तन्दुलमच्छ एक भी जल-जन्तु को निगल नहीं सकता, पकड़ नहीं सकता और न निगलवा या पकड़वा सकता है, किन्तु मन ही मन महाहिंसा की अनुमोदना करके उस महापाप के फलस्वरूप सातवीं नरक का मेहमान बन जाता है। एक व्यावहारिक उदाहरण लीजिए- एक विवेकी श्रावक ने महल बनवाया । महल बहुत ही सुन्दर और अद्वितीय बना है, लेकिन वह समझता है, इसमें आरम्भजा हिंसा लगी है, इसकी क्या सराहना की जाए, लाचारीवश ही विशाल परिवार के रहने के लिए मुझे इतना बड़ा मकान बनाना पड़ा है। इसलिए वह अपने मुंह से महल की बिलकूल प्रशंसा नहीं करता और न किसी से प्रशंसा सुनने के लिए उत्सुक है, न दूसरों को प्रशंसा करने की प्रेरणा देता है । मगर कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं, जो दूसरे की प्रशंसा में ही रत रहते हैं। ऐसा ही एक दर्शक आया। उसने महल देख कर कहा"वाह ! कितना अच्छा महल बना है। महल बनाकर सेठ ने नाम अमर कर दिया है । वाकई में ऐसा महल आसपास में कहीं नहीं है ।" इस घटना में महल बनाने वाला तो अल्प पाप में ही रहा, मगर उसके अनुमोदक और प्रशंसक ने महल की नाहक प्रशंसा करके मुफ्त में ही अधिक पाप बटोर लिया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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