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________________ धर्म की शरण : अपनी शरण १ धर्म आध्यात्मिक अनुभूति है । २ धर्म से हमारा आन्तरिक व्यक्तित्व बनता और अधर्म से वह बिगड़ता है । ३ धर्म का आरोपण नहीं होता, वह तो आत्मा का स्वभाव है । ४ धर्म का प्रशासन रक्षापरक है, दण्डपरक नहीं । ५ अच्छा जीवन जीने के लिए धर्म के सिवाय कोई मार्ग नहीं है। ६ धर्म एक ऐसा द्वीप है, जिसमें चले जाने पर कोई कष्ट नहीं रहता । ७ यदि शान्ति, पवित्रता की चाह है तो जीवन में धर्म की अवश्य जरूरत है । अपना मन सबसे अच्छा धर्मस्थान है, इसमें धर्म का सतत निवास रहता है । मेरा धर्म मेरे पास रहता है, उसे कोई छीन नहीं सकता । १० धर्म मानसिक शान्ति का सूत्र है । संबंधों की आंच पर आदमी को शांति का सूत्र देने वाला है । ११ सबसे बड़ा पाप है - स्वयं को भूल जाना। सबसे बड़ा धर्म है - अपने आपको याद रखना । १२ धर्म मानव जीवन की प्राकृतिक चिकित्सा है । १३ जिन्दगी दूसरे का अनुसरण नहीं, स्वयं का उद्घाटन है । जिन्दगी दूसरे जैसे होने की प्रक्रिया नहीं, स्वयं जैसे होने का आयोजन है । १४ धर्म श्रद्धा जागने पर व्यक्ति सोचता है-पुण्य का भोग उतना न भोगूं जिससे वह बंध का कारण बन जाये । - धर्म की शरण : अपनी शरण Jain Education International For Private & Personal Use Only १०५ www.jainelibrary.org
SR No.003089
Book TitleYogakshema Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjana Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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