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________________ سہ वे भी श्रावक हैं शिष्य की जिज्ञासा शिष्य गुरु की उपासना में उपस्थित हुआ । उसने विनम्र प्रणिपात कर निवेदन किया-गुरुदेव ! आपने मुझे पढ़ाया था—णो होणे णो अइरित्ते -कोई आत्मा हीन नहीं होती, कोई आत्मा अतिरिक्त और विशिष्ट नहीं होती। सब आत्माएं समान हैं। आपने मुझे यह समानता का पाठ पढ़ाया था किन्तु मनुष्य-मनुष्य में कितना अन्तर है ? मनुष्य मनुष्य के दृष्टिकोण में कितना अन्तर है ? एक आदमी किसी दृष्टिकोण से सोचता है तो एक आदमी किसी दूसरे दृष्टिकोण से सोचता है । फिर यह सिद्धांत कैसे मान्य होगा-सब आत्माएं समान हैं ? 'वत्स ! आज तुमने ऐसी क्या नयी घटना देखी, जिससे इस सिद्धांत के प्रति तुम्हारे मन में उद्वेलन हो गया ?' _ 'मैं आज एक घटना को देखकर आया हूं और उस घटना ने मेरे चिंतन को एक मोड़ दिया है । मैं एक धर्म प्रवक्ता के पास बैठा था। प्रवचनकार ने अपनी बात का निरूपण किया, कुछ सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। उस समय मैंने जो विचित्रता देखी, उससे मेरे मन में यह संदेह पैदा हो गया।' मैंने देखा-उस धर्म के प्रवचनकार ने जिस सिद्धांत का प्रतिपादन किया, वह अद्भुत था। कुछ लोगों ने बिल्कुल यथार्थ को ग्रहण कर लिया, जैसा कहा था, वैसा स्वीकार कर लिया। कुछ लोगों ने इस बात को उस समय स्वीकार कर लिया किंतु प्रवचन पण्डाल से बाहर निकलते ही चर्चा शुरू कर दी-आज जो प्रवचन में बातें बनाई गई हैं, वे गलत हैं। उनमें सचाई है ही नहीं। __ 'वत्स ! बात क्या थी ?' जिज्ञासा का हेतु 'गुरुदेव ! प्रवचनकार ने कहा-धर्म वर्तमान जीवन को सुधारने के लिए होता है । परलोक की बात को छोड़ दो, वर्तमान जीवन को सुधारो। किसी ने कहा---यह गलत बात है। धर्म परलोक सुधारने के लिए होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003088
Book TitleManjil ke padav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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