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________________ वह जानता-देखता है ५५ लेगा कि यह मनुष्य है। केवलज्ञानी उसे साक्षात् जान लेगा। एक ज्ञेय और ज्ञान पांच। इंद्रियज्ञान : श्रुतज्ञान इन्द्रिय के द्वारा हम सन्निकट को जानते हैं, दूर की बात को नहीं जानते । जो आंख के सामने है, उसे देख लेते हैं किंतु दीवार से परे क्या है, उसे हम नहीं देख पाते । हमारे इन्द्रियज्ञान की सीमा है। श्रुतज्ञान का काम है—विप्रकृष्ट को जानना। स्वर्ग है, सिद्धशिला या नरक है आदि आदि । पारलौकिक बातों को छोड़ दें किन्तु दिल्ली है, कलकत्ता है, बम्बई है, यह हम किस आधार पर जानते हैं ? श्रुतज्ञान के आधार पर, आप्तोपदेश या अनुमान के आधार पर । एक विश्वस्त व्यक्ति ने बताया—इतने किलोमीटर चले जाओ, अमुक शहर या गांव आ जाएगा। व्यक्ति उस दिशा में चल पड़ता है, वह शहर में पहुंच जाता है । दूरवर्ती वस्तु को श्रुतज्ञान के द्वारा जान लिया जाता है । जानने के अनेक प्रकार होते हैं। अकर्मा का जो ज्ञान है, वह है साक्षात् ज्ञान । प्रश्न है-अकर्मा । कैसे जानता देखता है ? अकर्मा का एक अर्थ किया जा सकता है--ज्ञानावरण-कर्मरहित । ध्यानस्थ को भी अकर्मा कहा जा सकता है। प्रस्तुत प्रसंग में अकर्मा का तात्पर्य होना चाहिए—अलोभ । जिसमें लोभ नहीं है, वह अकर्मा है । प्रश्न हो सकता है--लोभ का और जानने-देखने का क्या सम्बन्ध है ? महत्त्वपूर्ण सूत्र पातंजल योग का एक महत्वपूर्ण सूत्र है-अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकर्थता संबोधः---अपरिग्रह महाव्रत सिद्ध होता है तो पूर्वजन्म और भावी-जन्म का ज्ञान होता है । अपरिग्रह महाव्रत और पूर्वजन्म-पुनर्जन्म के ज्ञान में कहां का संबंध है ? हम इसका रहस्य समझे। इसका बहुत महत्त्वपूर्ण कारण है-जब तक शरीर का लोभ है, भेद-विज्ञान स्पष्ट नहीं है तब तक पूर्वोत्तर ज्ञान पर प्रतिबंधक रहेगा । जब तक लोभ रहेगा तब तक वह न पूर्व जन्म को जानने देगा, न भावी जन्म को जानने देगा । जब शरीर के प्रति लोभ समाप्त होता है, व्यक्ति कायोत्सर्ग की गहरी स्थिति में चला जाता है, शरीर से चैतन्य के भेद का स्पष्ट अनुभव हो जाता है, उस समय शरीर की प्रवृत्ति मंद होती चली जाती है और चेतना अति सक्रिय बन जाती है। मनोविज्ञान में माना जाता हैनींद में प्रायः चेतन-मन निष्क्रिय हो जाता है और अचेतन-मन सक्रिय हो जाता है । ठीक वही बात है--अलोभ की स्थिति में शरीर निष्क्रिय-सा हो जाता है, चेतना अति सक्रिय हो जाती है । इसी संदर्भ में यह तथ्य समझा जा सकता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003086
Book TitleAstittva aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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