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________________ तराज के दो पल्ले तुला प्रतिष्ठित है। वह तोलने वाला बहुत बड़ा है, जो दूसरों को तोल सके । तराजू के साथ समता की बात जुड़ी हुई है, न्याय की बात जुड़ी हुई है। तराजू के दोनों पल्ले समान होने चाहिए। समता के लिए तराजू की उपमा प्रयुक्त हुई है और न्याय के लिए भी तराजू की उपमा प्रयुक्त होती रही है। यद्यपि हमारे कवियों ने तुला में भी दोष देखा है-हे तुला ! तुम प्रामाणिक हो, सबको ठीक मापती हो, फिर भी तुम न्याय नहीं करती, क्योंकि जो भारी है उसे नीचे ले जाती हो और जो हल्का है उसे ऊपर उठा देती हो। प्रामाणिक पद गही तुला, यह तुम करत अन्याय । अध पद देत गरिष्ठ को, लघु उन्नत पद पाय ॥ अनध्यवसाय : प्रत्यभिज्ञान आचारांग में भी तुला शब्द का प्रयोग किया गया है--'एयं तुलमन्नेसि'--इस तुला का अन्वेषण करो। तुला का संधान सफल होना चाहिए । यह नहीं कहा गया--इस तुला को देखो। हमारे देखने की प्रक्रिया का एक नाम है-अध्यवसाय । आदमी बाजार में जाता है, हजारों चीजों को देखता है। उससे पूछा जाए-अमुक दुकान में कौन-कौन सी चीजें थीं ? उसका उत्तर होगा—मुझे पता नहीं। बाजार में हजारों लोग मिलते हैं। किसी व्यक्ति से पूछा जाए--तुमने कितने लोगों को देखा ? तुम्हें कितने व्यक्ति मिले ? वह इसका सम्यक् उत्तर नहीं दे पाएगा। इस दर्शन का नाम है-अनध्यवसाय । जिसके साथ भध्यवसाय नहीं जुड़ता, उसे पहचाना नहीं जा सकता। दूसरा तत्त्व है—प्रत्यभिज्ञान । कभी कभी व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का नाम, पता आदि पूछ लेता है और जब कभी वह पुनः मिलता है तब उसे पहचान भी लेता है । यह है प्रत्यभिज्ञान-पहचानने जैसा निरीक्षण । अनध्यवसाय और प्रत्यभिज्ञान—इन दोनों से कोई सार्थक निष्पलि उपलब्ध नहीं होती। अन्वेषण तीसरा तत्व है- अन्वेषण-सतत निरीक्षण। सतत निरीक्षण के बिना ज्ञान और सत्य की प्राप्ति संभव नहीं है। वस्तुतः सतत निरीक्षण ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003086
Book TitleAstittva aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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