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________________ २२० अस्तित्व और अहिंसा रख देते हैं । अब तुम इसके पीछे एक 'स' और लगा दो। 'सदा सोऽहं' 'सदा सोऽहं' का जप करो। भाई ने मुनि का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। कुछ दिन बीते होंगे। भक्ति-संप्रदाय का वही साधु फिर उस गांव में आया। उस भाई से मुनि ने पुनः जप के बारे में पूछा। भाई से 'सदासोऽहं' की जाप करने की बात सुनकर मुनि ने कहा-तुम फिर गलत जप कर रहे हो। इसे सही करने के लिए एक दा' और जोड़ दो- 'दासदासोऽहं', 'दासदासोऽहं' का जप करो। वह भाई यह सुनकर दंग रह गया। उसने सोचा--- मैं किस चक्कर में फंस गया । यह झंझट है। और उसने जप करना ही छोड़ दिया। दर्शन के क्षेत्र में द्वैतवाद और अद्वैतवाद के नाम पर ऐसी खींचातानी चल पड़ी। जीवन का रस चुक गया, कोरा शब्दों का झंझट शेष रह गया । अद्वैत की सार्थकता हम अद्वैतवाद को समझे। द्वैतवाद के साथ अद्वैतवाद को समझना भी बहुत जरूरी है, किन्तु अद्वैत को समझने के लिए स्थूल से सूक्ष्म की दिशा की ओर बढ़ने का प्रयत्न करना होगा। स्थूल जगत् में जीने वाला कभी अद्वैत की बात नहीं समझ पाएगा। हमारे सामने दो जगत् हैं—द्रव्य का जगत् और पर्याय का जगत् । जब हम पर्याय के जगत् में जिएंगे तब हमारे लिए अद्वैत का कोई महत्त्व नहीं होगा और जब हम द्रव्य के जगत् में जिएंगे तब हमारे लिए द्वैत का कोई अर्थ नहीं होगा। यदि हम स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाएं, सूक्ष्म के साथ जीवन को जोड़ेंगे तो हमारे लिए अद्वैतवाद बहुत सार्थक होगा । मैं मानता हूं, इस दृष्टि से आचारांग का समग्र अनुशीलन किया जाए तो दृष्टि ही बदल जाए। आयारो : आयारचूला आचारांग को समझने के लिए बहुत व्याख्याएं लिखी गई हैं, आचारांग का भाष्य भी लिखा गया है किन्तु आज भी ऐसा लगता है, आयारो की गंभीरता का पूरा स्पर्श अभी तक नहीं हो पाया है। इस गंभीर सूत्र के संदर्भ में जब आचा रांग के दूसरे भाग---'आयार-चूला' को देखते हैं तो यह धारणा बनती है---महावीर की आचार-व्यवस्था अध्यात्म-परक थी और उत्तरकालीन आचार्यों द्वारा कृत आचार-व्यवस्था मर्यादा-परक हो गई। महावीर ने ध्यान दिया अध्यात्म के स्तर पर और उत्तरकाल में ध्यान केन्द्रित रहा नियम के स्तर पर। अध्यात्म से अनुप्राणित आचार का ग्रन्थ है---आयारो और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003086
Book TitleAstittva aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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