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________________ १८६ अस्तित्व और अहिंसा नहीं करोगे तो बन्धते चले जाओगे, गांठें घुलती चली जाएंगी, तुम गांठमय बन जाओगे ।' धर्म का यह प्रतिपादन अतीन्द्रिय चेतना के आधार पर हुआ है । धर्म का मूल आधार है -अतीन्द्रिय चेतना | जब तक व्यक्ति इन्द्रिय चेतना के स्तर पर जीता है, उसे धर्म की जरूरत ही महसूस नहीं होती, धर्म का जीवन में कोई विशेष अर्थ नहीं होता । जैसे ही इन्द्रियों से परे जाने की बात समझ में आती है, धर्म की बात समझ में आने लग जाती है । शब्द, रस, रूप, गंध और स्पर्श --इनसे ऊपर उठने का नाम है धर्म । इन सबमें आसक्त होने का नाम है अधर्म । धर्म को अनिन्द्रिय स्तर पर ही जाना जा सकता है । मेरा धर्म इस कथन में भी एक रहस्य का आणाए मामगं धम्मं- - इस सूक्त में एक शब्द है - मामगं । यह शब्द उलझाने वाला है । प्रश्न हो सकता है - 'मेरा धर्म' यह अधिकार कहां से आया ? हवा, पानी, सूर्य, चन्द्रमा आदि पर किसी का भी अधिकार नहीं होता । महावीर ने 'मेरा धर्म' कैसे कहा ? छिपा है । हम समझें - धर्म क्या है ? धर्म विधि-विधान, जो निश्चित किया गया है । सार्वभौम है पर उस सत्य को पाने के लिए की गई हैं । महावीर ने 'मामक' शब्द का आत्मा को पाने के लिए मैंने जो मार्ग, जो पद्धति निश्चित की है वह मेरी खोज है । इसका तात्पर्य है आत्मा को पाने का जो जागतिक नियम मैंने खोजा है, उसे समझो । महावीर ने अपनी साधना से, अपने श्रम से जो नियम खोजे हैं, वे महावीर के अपने अवदान हैं । अर्थ है - एक कानून, एक सत्य व्यापक है, अनन्त और अपनी-अपनी पद्धतियां निर्धारित प्रयोग किया है, उसका अर्थ है 1 आज्ञा : मूल अर्थ हम आज्ञा को अधिकांशतः नियामक भाषा में ही समझते हैं । वस्तुतः आज्ञा का मूल अर्थ है जानना । आज्ञा की परिभाषा की गई—आ समन्तात् ज्ञायन्ते अतीन्द्रियाः पदार्थाः येन सा आज्ञा जिससे अतीन्द्रिय पदार्थ को जाना जाता है, उसका नाम है आज्ञा । भगवान महावीर श्रद्धा के नहीं, ज्ञान के महान् समर्थक थे । श्रद्धा का मतलब है घनीभूत इच्छा । ज्ञान के बिना श्रद्धा कहां से आएगी ? पहले ज्ञान, फिर श्रद्धा । हम वस्तु को यथार्थ रूप में जानें । जानने के बाद आचरण का प्रश्न प्रस्तुत होता है, अनुशीलन और अनुपालन का प्रश्न प्रस्तुत होता है । महावीर ने कहा – पहले जानो - कर्म को जानो, जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष को जानो, नव पदार्थों को जानो । नव पदार्थ को जाने बिना धर्म की बात को नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003086
Book TitleAstittva aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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