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________________ जहां स्वर मौन हो जाते हैं की अमूर्त रूप में स्वीकृति अपने आपमें सर्वज्ञता की स्वीकृति है। कर्मशास्त्र की भाषा में दो ज्ञान प्रतिपादित हैं--क्षायोपशमिक ज्ञान और क्षायिक ज्ञान । क्षायोपशमिक ज्ञान के द्वारा केवल मूर्त पदार्थों को जाना जा सकता है। श्रुतज्ञान से व्यक्ति मूर्त-अमूर्त---दोनों पदार्थों को जानता है पर उनका साक्षात् नहीं कर सकता। केवलज्ञान या क्षायिक ज्ञान ही ऐसा है, जिसके द्वारा व्यक्ति अमूर्त तत्त्व को साक्षात् जानता है । अमूर्त अस्तित्व का स्वीकार केवलज्ञान के द्वारा मान्य सिद्धांत का स्वीकार है । जो केवली है, जिसने अमूर्त अस्तित्व का साक्षात्कार किया है, वही अमूर्त सचाई को अभिव्यक्त कर सकता है। भिन्न हैं सूक्ष्म जगत् के नियम प्रश्न हो सकता है--जिसमें रूप नहीं है, उसका साक्षात्कार कैसे ? हम इन्द्रिय के नियम को जानते हैं इसलिए यह धारणा बन गई—जिसमें शब्द, रूप, गंध और स्पर्श नहीं है, उसे कैसे साक्षात् किया जा सकता है ? यह हमारी एक मान्यता बनी हुई है। हमने ऐसे कितने ही स्थूल नियमों को पकड़ रखा है। हम इन्द्रिय-जगत् के नियमों से इतने परिचित हो गए हैं कि अतीन्द्रिय नियम सामने आता है तो हम उसे मानने के लिए तैयार नहीं हो पाते । हम स्थूल नियमों को जानते हैं, सूक्ष्म नियमों को नहीं जानते । वस्तुतः स्थूल जगत् के नियम सूक्ष्म जगत् से भिन्न हैं इसीलिए उन्हें समझना सहज नहीं होता। कहा गया-जो बात अहेतुगम्य है, उसके लिए तर्क को बीच में लाने का प्रयास मत करो। बहुत सारी बातें ऐसी हैं, जो तर्क का विषय ही नहीं बनती। भगवान महावीर ने शुद्ध आत्मा के संदर्भ में जो कहा, वह इन्द्रितीत चेतना के स्तर पर ही कहना संभव हो सकता है। नेतिवाद उपनिषद् का नेतिवाद बहुत प्रचलित है। शुद्ध आत्मा को समझाने के लिए महावीर ने भी नेतिवाद का प्रयोग किया है। बहुत सारे तत्त्व सकारात्मक दृष्टि से नहीं समझाए जा सकते। आचारांग में शुद्ध आत्मा के संदर्भ में नेतिवाद का प्रयोग करते हुए कहा गया शुद्ध आत्मा न दीर्घ है, न ह्रस्व है, न वृत्त है, न त्रिकोण है, न चतुष्कोण है, न परिमंडल है। वह न कृष्ण है, न नील है, न पीत है और न शुक्ल है । वह न सुगंध है, न दुर्गन्ध है। वह न तिक्त है, न कटु है, न कषाय है, न अम्ल है और न मधुर है । वह न कर्कश है, न मधुर है, न गुरु है, न लघु है, न शीत है, न उष्ण है, न स्निग्ध है और न रूक्ष है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003086
Book TitleAstittva aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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