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________________ वह तू ही है स्थापित करवा देता है कि बर्फ के टुकड़े से हाथ में फफोला उभर आता है, व्यक्ति उसकी पीड़ा को भोगने लग जाता है । प्रश्न है-ऐसा कैसे हो सकता है ? यह कोई चमत्कार नहीं है । द्रव्य के साथ अभेद होने पर ऐसी घटनाएं घट जाती हैं। हमारा प्रत्येक पदार्थ के साथ अभेद सम्बन्ध है किन्तु जब हम उसे भुला देते हैं तब ये सारे विकल्प पैदा होते हैं। यदि हम अभेद की ओर ध्यान केन्द्रित करें तो एकात्मकता की स्थिति बन सकती है। सन्दर्भ : पुस्तक हम इस सचाई को एक उदाहरण से समझे। मेरे हाथ में एक पुस्तक है । यदि पूछा जाए-क्या आप इसे जानते हैं ? आपका उत्तर होगा-हां ! हम इसे जानते हैं। यह हमें दिखाई दे रही है पर वस्तुतः हम इसे नहीं जानते । इस पुस्तक से संसार का कितना अभेद है, उसे हम कहां जान पाते हैं ? एक ओर सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्माण्ड या पूरा लोक है, दूसरी ओर केवल एक पुस्तक । इस पुस्तक से सब जुड़े हुए हैं। इस पुस्तक में जितने आकाशप्रदेशों का अवगाहन है, स्पर्श है, उससे जुड़ा हुआ है दूसरा आकाश-प्रदेश, दूसरे पुद्गल । हम आगे से आगे चलते चलें, यह पुस्तक पूरे जगत् से जुड़ी हुई अनुभूत होती चली जाएगी। इस पुस्तक का अनन्तर सम्बन्ध है कुछ आकाश प्रदेशों से, पुद्गलों से और इसका परम्पर सम्बन्ध है पूरे लोक से । सारे लोक को जाने बिना इस पुस्तक को कभी जाना नहीं जा तकता । अभेदबुद्धि : अहिंसा हमारी दृष्टि स्थूल है, हमारी आंखों की शक्ति सीमित है। हम भेद को जल्दी पकड़ लेते हैं, अभेद को पकड़ नहीं पाते, इसीलिए अहंकार बहुत पनपता है । अहंकार भेद करना चाहता है, अलग करना चाहता है। अलग करने या होने की वृत्ति अहंकार से पैदा होती है। अगर हमारा अहंकार शांत हो, कषाय शांत हो तो थोड़े से भेद को छोड़कर आदमी अलगाव की बात कैसे कर सकता है ? 'जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है'----यह बात तभी समझ में आ सकती है, जब अहंकार का विलय हो जाए । जब तक कषाय का विलय नहीं होता तब तक यह सूत्र समझ में नहीं आता। यदि यह अभेद की बात समझ में आ जाए तो हिंसा में कमी आ जाए, केवल अनिवार्य हिंसा का प्रसंग ही सामने रहे। अहिंसा में कोई भेद नहीं होता। चाहे वनस्पति का जीव है, पानी या अग्नि का जीव है, व्यक्ति को पहले यह सोचना होगा'वह मैं ही हूँ' इस अभेदबुद्धि के जागने पर ही अहिंसा की बात प्रतिष्ठित हो सकती है। हिंसा का कारण : भेदबुद्धि भेदबुद्धि के कारण अहिंसा के क्षेत्र में भी अनेक विकल्प प्रस्तुत किए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003086
Book TitleAstittva aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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