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________________ क्या अरति ? क्या आनन्द ? यह जगत् द्वन्द्वात्मक है। अकेला कोई नहीं है, सब कुछ जोड़ा ही जोड़ा है । एक जोड़ा है सुख और दुःख का। आदमी सुख चाहता है पर ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है, जिसे दुःख न मिले । समस्या है--जिएं कैसे ? चतुष्पदी शरीर और मन को दुःख अनुकूल नहीं लगता। उसे कोई नहीं चाहता “पर वह आ धमकता है। जहां संयोग और वियोग का नियम है वहां उसके साथ सुख और दुःख का भी एक नियम है । संयोग और वियोग न हो तो सुख और दुःख भी नहीं हो सकता । जो संयोगातीत हो गया, उसके लिए न सुख और न दुःख । जो संयोगों में रमता है, संबन्धों का जीवन जीता है, उसके लिए सुख और दु:ख-दोनों का होना अनिवार्य है। आर्तध्यान के सन्दर्भ में कहा गयाप्रिय का संयोग होता है तो सुख होता है, अप्रिय का संयोग होता है तो दुःख होता है । अप्रिय का वियोग होता है तो सुख होता है। प्रिय का वियोग होता है तो दुःख होता है। समस्या है पकड़ की इस चतुष्पदी में हमारी सारी मानसिकता बन्धी हुई है। यह एक ऐसा अनुबन्ध है, जिसके भंवर में पूरा जगत् निमज्जन करता है। हम कैसे कल्पना करें—दुःख न हो ? शादी हुई, एक संयोग हो गया। दो-चार 'महीने बीते, पति चल बसा। संयोग वियोग में बदल गया । संयोग से सुख मिला और वियोग से दुःख । थोड़े दिन का सुख जीवन भर के दुःख में बदल गया । ऐसी घटनाएं घटती रहती हैं। जहां संयोग और वियोग--दोनों मान्य बने हुए है, वहां सुख और दुःख क्यों नहीं होगा ? सुख और दुःख से वह बच सकता है, जो संयोग और वियोग की पकड़ से बचता है। इस सारे सन्दर्भ में भगवान महावीर ने कहा—साधक के लिए क्या अरति और क्या आनन्द ? वह इनका ग्रहण न करे। यदि व्यक्ति अरति को ग्रहण करेगा तो दुःख होगा। यदि उसका ग्रहण नहीं होगा तो वह आएगी और चली जाएगी । सुख और आनन्द आए तो उसे भी मत पकड़ो, ग्रहण मत करो। यदि सुख को पकड़कर जीना चाहते हैं तो दुःख से क्यों डरें ? अगर पकड़ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003086
Book TitleAstittva aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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