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________________ ८१ जैन साहित्य हजार वर्ष पुराना रूप जानना अति कठिन है। मोटे तौर पर हमें यह मानना होगा कि भारतीय वाङ्मय का भाग्य लम्बे समय तक कण्ठस्थ-परम्परा में ही सुरक्षित रहा है। जैन, बौद्ध और वैदिकतीनों परम्पराओं के शिष्य उत्तराधिकार के रूप में अपने-अपने आचार्यों द्वारा ज्ञान का अक्षय-कोष पाते थे। आगम लिखने का इतिहास जैन दृष्टि के अनुसार श्रुत-आगम को विशाल धन-राशि चौदह पूर्व में संचित है। वे कभी लिखे नहीं गए। किन्तु अमुकअमुक परिमाण स्याही से उनके लिखे जा सकने की कल्पना अवश्य हुई है। सबसे पहले वीर-निर्वाण की नौवीं शताब्दी [८२७-८४०] में आगमों को संकलित कर लिखा गया और आर्यस्कन्दिल ने साधुओं को अनुयोग की वाचना दी। इसलिए उनकी वाचना माथुरी-वाचना कहलाई। माथुरी वाचना के ठीक समय पर वलभी में नागार्जुनसूरि ने श्रमण-संघ को एकत्र कर आगमों को संकलित किया। नागार्जुन और अन्य श्रमणों को जो आगम और प्रकरण याद थे, वे लिखे गए। यह 'नागार्जुनीय-वाचना' कहलाती है। दूसरी बार वीर-निर्वाण ६८० या [९६३] वर्ष में देवद्धिगणी क्षमाश्रमण ने फिर आगमों को पुस्तकारूढ़ किया और संघ के समक्ष उसका वाचन किया। यह कार्य वलभी में संपन्न हुआ। पूर्वोक्त. दोनों वाचनाओं के समय लिखे गए आगमों के अतिरिक्त अन्य प्रकरण-ग्रन्थ भी लिखे गए। दोनों वाचनाओं के सिद्धांतों का समन्वय किया गया और जो महत्त्वपूर्ण भेद थे उन्हें वाचना-भेद के रूप में स्वीकार किया गया। इन भेदों का उल्लेख आगम के व्याख्या-ग्रंथों में आज भी उपलब्ध है। प्रतिक्रिया आगमों के लिपिबद्ध होने के उपरान्त भी एक विचारधारा ऐसी रही कि साधु पुस्तक लिख नहीं सकते और अपने साथ रख' भी नहीं सकते। पुस्तक लिखने और रखने में दोष बताते हुए लिखा १. अक्षर लिखने में कुन्थु आदि त्रस जीवों की हिंसा होती है, इसलिए पुस्तक लिखना संयम-विराधना का हेतु है। २. पुस्तकों को ग्रामान्तर ले जाते हुए कन्धे छिल जाते हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003083
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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