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________________ जैन परम्परा का इतिहास उपासना या भक्तिमार्ग का विकास नहीं हुआ। भगवान महावीर के धार्मिक निरूपण में आध्यात्मिक और नैतिक सिद्धांत हैं। उसमें उपासना और भक्ति के सिद्धांत नहीं हैं। भगवान् महावीर की व्याख्या में व्रत धार्मिक नहीं जीवन की आधारशिला [मूल गुण] है । धर्म का भव्य प्रासाद उसी के आधार पर खड़ा किया जा सकता है। भगवान् महावीर ने मुनि-धर्म के लिए पांच महाव्रतों तथा गृहवासी के लिए पांच अणुव्रतों की व्यवस्था दी। पांच महाव्रत-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह । पांच अणुव्रत -एकदेशीय अहिंसा, एकदेशीय सत्य, एकदेशीय अचौर्य, स्वदार-संतोष, इच्छा-परिमाण । ___ व्रतों के विस्तार में भगवान् ने उस समय के अनैतिक आचरणों की ओर अंगुली-निर्देश किया और उन्हें छोड़ने की प्रेरणा दी। भगवान् महावीर के अस्तित्वकाल में उनका धर्म बहुत व्यापक नहीं बना। उनके श्रावकों की संख्या लाखों में ही सोमित थी। भगवान् के निर्वाण के बाद उत्तरवर्ती आचार्यों ने उपासना और भक्तिमार्ग को भी स्थान दिया । उस अवधि में जैन धर्म में प्रतीकों की पूजा-उपासना प्रचलित हुई । मंत्र-जप का महत्त्व बढ़ा। महावीर की आत्म-केन्द्रित साधना विस्तार-केंद्रित हो गई। उस युग में जन साधारण जैन धर्म की ओर आकृष्ट हुआ और वह भारत के बहुत बड़े भाग में एक प्रभावी धर्म के रूप में सामने आ गया। तत्त्व-चर्चा का प्रवाह भगवान् महावीर की तपः पूत वाणी ने श्रमणों को आकृष्ट किया। भगवान् पार्श्व की परम्परा के श्रमण भगवान् महावीर के तीर्थ में सम्मिलित हो गये । अन्यतीर्थिक संन्यासी भी भगवान् की परिषद् मे आने लगे। अम्बड़, स्कन्दक, पुद्गल, और शिव आदि परिव्राजक भगवान् के पास आए, प्रश्न किए और समाधान पा भगवान् के शिष्य बन गए। कालोदायी आदि अन्ययूथिकों के प्रसंग भगवान् के तत्त्वज्ञान की व्यापक चर्चा पर प्रकाश डालते हैं । भगवान् का तत्त्व-ज्ञान बहुत सूक्ष्म था। वह यूग भी धर्म-जिज्ञासुओं से भरा हआ था। सोमिल ब्राह्मण, तंगिया नगरी के श्रमणोपासक, जयन्ती श्राविका, माकन्दी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003083
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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