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________________ जैन परम्परा का इतिहास २. एकल विहारीमुनि - यह दूसरी कक्षा है। इसमें अहिंसाचरण के साथ-साथ तपस्या भी प्रधान होती है । इन कक्षाओं में मुनि के लिए दूसरी [ एकल विहारी ] कक्षा और गृहवासी के लिए चौथी [ प्रतिमाघर ] कक्षा में कुछ कठोर साधना का अभ्यास होता है । शेष कक्षाओं की साधना का मार्ग ऋजु है । ५० भगवान् महावीर की साधना-पद्धति में मृदु, मध्य और अधिक - तीनों मात्राओं का समन्वय है । मनुष्य भी मंद, मध्य और प्राज्ञ - तीन कोटी के होते हैं । इन तीनों कोटियों को एक कोटि में रखकर धर्म की व्याख्या करने की अपेक्षा विभिन्न कोटि के लोगों के लिए 'विभिन्न दृष्टिकोणों से धर्म की व्याख्या करना अधिक मनोवैज्ञानिक है। असाम्प्रदायिक धर्म का मन्त्रदान 1 एक व्यक्ति ने आचार्यश्री तुलसी से पूछा- क्या भगवान् महावीर जैन थे ? आचार्यश्री ने कहा- नहीं, वे जैन नहीं थे । वे जिन थे, उनको मानने वाले जैन होते हैं । वे जैन न होकर भी, दूसरे शब्दों में अजैन होकर भी, महान् धार्मिक थे । इसका फलित स्पष्ट है कि कोई व्यक्ति जैन होकर ही धार्मिक हो सकता है ऐसा अनुबंध नहीं है। जैन, वैष्णव, शैव, बौद्ध--- ये सब नाम धर्म की परम्परा के सूचक हैं | इनकी धर्म के साथ व्याप्ति नहीं है । इसी सत्य की स्वीकृति का नाम असाम्प्रदायिक दृष्टि है । साम्प्रदायिकता एक उन्माद है । उसके आक्रमण का ज्ञान तीन -लक्षणों से होता है - १ सम्प्रदाय और मुक्ति का अनुबंध - मेरे -सम्प्रदाय में आओ, तुम्हारी मुक्ति होगी अन्यथा नहीं होगी । २. प्रशंसा और निन्दा - अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा और दूसरे सम्प्रदायों की निंदा । ३. ऐकान्तिक आग्रह – दूसरों के दृष्टिकोण को - समझने का प्रयत्न न करना । भगवान् महावीर अहिंसा की गहराई में पहुंच चुके थे । इसलिए उन पर साम्प्रदायिक उन्माद आक्रमण नहीं कर सका । इसे उलटकर भी कहा जा सकता है कि भगवान् महावीर पर साम्प्रदायिक उन्माद का आक्रमण नहीं हुआ, इसलिए वे अहिंसा की गहराई में जा सके । आत्मौपम्य की दृष्टि को विकसित किए बिना जो धर्म के मंच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003083
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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