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________________ भगवान् महावीर ४५. प्रति जितना आकर्षण हो सकता है, उतना जीवित मनुष्य और गम्य व्यक्तित्व के प्रति नहीं हो सकता। भगवान् ने मनुष्य को ईश्वर के स्थान पर प्रतिष्ठित किया और यह उद्घोष किया कि ईश्वर कोई कल्पनातीत सत्ता नहीं है । वह मनुष्य का ही चरम विकास है । जो मनुष्य विकास की उच्च कक्षा तक पहुंच जाता है, वह परमात्मा या ईश्वर है। भगवान् महावीर ने परम आत्मा की पांच कक्षाएं निर्धारित की : १. अर्हत्-धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक । २. सिद्ध- मुक्त आत्मा। ३. आचार्य-धर्म-तीर्थ के संचालक । ४. उपाध्याय--धर्म-ज्ञान के संवाहक । ५. साधु-धर्म के साधक । इनमें चार कक्षाओं के अधिकारी मनुष्य हैं और एक कक्षा के अधिकारी मुक्त आत्माएं हैं। इनमें पहला स्थान मनुष्य का है, दूसरा स्थान मुक्त आत्मा का है । मुक्त आत्मा मनुष्य-मुक्ति का हेतु नहीं है । उसकी मुक्ति के हेतु अर्हत् हैं । इसलिए नमस्कार महामंत्र में प्रथम स्थान उनको मिला। जैन धर्म-दर्शन व्यक्ति-पूजा को मान्यता नहीं देता। वह गुण का पुजारी है । वह प्रत्येक व्यक्ति की अर्हताओं-योग्यताओं को मान्य कर उसकी पूजा करता है। इसका प्रत्यक्ष साक्ष्य है-नमस्कार महामंत्र और चतुःशरण सूत्र। नमस्कार महामंत्र मंत्र-शृंखला का विशिष्ट मंत्र ही नहीं, महामंत्र है और यह समस्त जैन परम्परा द्वारा एक रूप से मान्य है । इसमें पांच पद और अक्षर पैंतीस हैं। __णमो अरहताणं-मैं अर्हत् [धर्म तीर्थ के प्रवर्तक] को नमस्कार करता हूं। णमो सिद्धाणं- मैं सिद्ध [मुक्तात्मा] को नमस्कार करता 2004. णमो आयरियाणं-मैं आचार्य [धर्म तीर्थ के संचालक] को नमस्कार करता हूं। णमो उवज्शायाणं-मैं उपाध्याय [श्रुत ज्ञान के संवाहक] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003083
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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