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________________ 39 भगवान् महावीर ११. प्रभास -मोक्ष है या नहीं ? भगवान उनके प्रच्छन्न संदेहों को प्रकाश में लाते गए और वे उनका समाधान पा अपने को समर्पित करते गए । इस प्रकार पहले प्रवचन में ही भगवान् की शिष्य-सम्पदा समृद्ध हो गई-४४०० शिष्य बन गए। भगवान् ने इन्द्रभूति आदि ग्यारह विद्वान् शिष्यों को गणधर 'पद पर नियुक्त किया और अब भगवान् का तीर्थ विस्तार पाने लगा। 'स्त्रियों ने प्रव्रज्या ली। साध्वीसंघ का नेतृत्व चन्दनवाला को सौंपा। आगे चलकर १४ हजार साधु और ३६ हजार साध्वियां हुईं। स्त्रियों को साध्वी होने का अधिकार देना भगवान् महावीर का विशिष्ट मनोबल था। इस समय दूसरे धर्म के आचार्य ऐसा करने में हिचकते थे । आचार्य विनोबा भावे ने इस प्रसंग का बड़े मार्मिक ढंग से स्पर्श किया है। उनके शब्दों में ---.'महावीर के संप्रदाय मेंस्त्री-पुरुषों का किसी प्रकार का कोई भेद नहीं किया गया है। पुरुषों को जितने अधिकार दिए गए हैं, वे सब अधिकार बहनों को दिए गए थे । मैं इन मामूली अधिकारों की बात नहीं करता हूं, जो इन दिनों चलता है और जिनकी चर्चा आजकल बहत चलती है। उस समय ऐसे अधिकार प्राप्त करने की आवश्यकता भी महसूस नहीं हुई होगी। परन्तु मैं तो आध्यात्मिक अधिकारों की बात कर रहा हूं। पुरुषों को जितने आध्यात्मिक अधिकार मिलते हैं, उतने ही स्त्रियों को भी अधिकार हो सकते हैं । इन आध्यात्मिक अधिकारों में महावीर ने कोई भेद-बुद्धि नहीं रखी, जिसके परिणामस्वरूप उनके शिष्यों में जितने श्रमण थे, उनसे ज्यादा श्रमणियां थीं। वह प्रथा आज तक जैन धर्म में चली आयी है। आज भी जैन संन्यासिनी होती हैं। जैन धर्म में यह नियम है कि संन्यासी अकेले नहीं घूम सकते हैं। दो से कम नहीं, ऐसा संन्यासों और संन्यासिनियों के लिए नियम है। तद्नुसार दो-दो बहनें हिन्दुस्तान में घूमती हुई देखते हैं। बिहार, मारवाड़, गुजरात, कोल्हापुर, कर्नाटक और तमिलनाडु की तरफ इस तरह घूमती हुई देखने को मिलती हैं, यह एक बहुत बड़ी विशेषता माननी चाहिए। महावीर के पीछे चालीस ही साल के बाद गौतम बुद्ध हुए, जिन्होंने स्त्रियों को संन्यास देना उचित नहीं माना। स्त्रियों को संन्यास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003083
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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