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________________ चांदनी भीतर की इतना बड़ा कारखाना शरीर के भीतर है, उसको चलाने वाला चाहिए, उसका स्विच बोर्ड मिलना चाहिए। न जाने कितना भीतर पड़ा है। हम यह अध्ययन करें कि कैसे इन अध्यात्म के रहस्यों को समझने का प्रयत्न करें ? जब यह प्रयत्न क्रियान्वित होगा, सारी धारणाएं बदल जाएंगी। हिंसा मूल नहीं है परिग्रह की बात छूटती है, अध्यात्म की चेतना अपने आप जाग जाती है। जब तक आदमी परिग्रह के अधिकार को पकड़े रखेगा, तब तक लोभ प्रासंगिक बना रहेगा, हिंसा कभी समाप्त नहीं होगी। हिंसा मूल नहीं है, मूल है परिग्रह । आचारांग सूत्र में भगवान महावीर ने हिंसा के जितने कारण बतलाएं हैं, उनमें मुख्य कारण है--लोभ, परिग्रह की मनोवृत्ति । म्यूनिख (पश्चिम जर्मनी) के चिड़ियाघर के डायरेक्टर ने बताया-जब बंदर को जंगल से लाते हैं तब वह यहां रहना पसन्द नहीं करता किन्तु जब वह पिंजड़े पर अपना अधिकार जमा लेता है तब वह अन्दर किसी को घुसने नहीं देता। यह अधिकार और परिग्रह की भावना से प्रभावित प्रवृत्ति है। यह छूटती है तो सब कुछ छूट जाता है अन्यथा कोई भी पदार्थ राग या मूर्छा का कारण बन जाता है। प्रश्न है मूर्छा का पात्र का रंगने का प्रसंग था। मुनि वेणीरामजी ने आचार्य भिक्षु से कहा--इसे हिंगलू से रंगना अच्छा नहीं है, इसे केलहू से रंग लें, इससे मूर्छा नहीं आएगी। आचार्य भिक्षु ने कहा-एक खपरेल कुछ खराब है और एक खपरेल कुछ अच्छा है। तुम कौन सा लोगे? मुनि वेणीरामजी बोले--जो अच्छा है, वही लूंगा। आचार्य भिक्षु ने कहा-तब तो खपरेल भी मूर्छा का कारण बन गया। प्रश्न वस्तु का नहीं है, प्रश्न है--मूर्छा का। राजा का प्रतिबोध राजा इषुकुमार को सूचना दी गई--राजा पुरोहित भृगु अपनी पत्नी एवं पुत्रों के साथ अकूत धन-वैभव को छोड़कर प्रव्रजित हो गए हैं। उनकी संपत्ति का वारिस कोई नहीं है। जिस संपत्ति का कोई मालिक नहीं होता, उस पर राज्य का अधिकार होता है। राजा ने उस संपत्ति को राज्य के कोषागार में लाने का आदेश दे दिया। महारानी कमलावती ने इस राजाज्ञा को सुना। उसने राजा को प्रतिबोध देते हुए कहा-राजन्! वमन खाने वाले पुरुष की प्रशंसा नहीं होती। तुम ब्राह्मण के द्वारा परित्यक्त धन को लेना चाहते हो, यह क्या है ? यदि समूचा जगत् मिल जाए या सारा धन तुम्हारा हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003082
Book TitleChandani Bhitar ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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