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________________ चांदनी भीतर की ५६ चले जाओ । शिष्य को वैसा करना होता है पर यह बदलाव नहीं है। आचार्य भिक्षु के शब्दों में शिष्य को खड़े-खड़े धूप में सुखाया जा सकता है, यह आदेश के द्वारा संभव है। समर्पण: अपवाद आचार्यवर मेवाड़ संभाग की यात्रा के दौरान एक गांव में पधारे। दो भाइयों में अनबन चल रही थी । आचार्यवर ने दोनों भाइयों को समझाया- इस आपसी झगड़े को मिटा दो। परस्पर कलह करना ठीक नहीं है। हम तुम्हारे गांव में आए हैं, इस अवसर को हाथ से मत जाने दो। वह गांव पहाड़ों की घाटियों के बीच था। चारों ओर चट्टानें ही चट्टानें, मध्य में गांव। वह आदमी गांव की चट्टान जैसा ही मजबूत था। उसने आचार्यवर से निवेदन किया- गुरुदेव ! मैं आपका भक्त हूं, श्रावक हूं। आपके चरणों में पूर्णतः समर्पित हूं। आप मुझे धूप में सुखाएं तो खड़ा खड़ा सूख जाऊंगा, पर यह झंझट नहीं मिटाऊंगा। यह कैसा विपर्यास है ! कुछ लोग समर्पण की ऐसी दुहाई देते हैं। आप जो कहेंगे, वह कर लूंगा पर इस बात को नहीं मानूंगा । यह कैसा समर्पण है ! इस स्थिति में समर्पण की परिभाषा क्या हो सकती है ? अपवाद होगा तो समर्पण नहीं और समर्पण होगा तो अपवाद नहीं। अपवाद और समर्पण दोनों एक साथ नहीं चल सकते। समर्पण में कोई अपवाद नहीं हो सकता । 'यह कैसा समर्पण है' आचार्यवर ने यह कहकर बातचीत को वहीं समाप्त कर दिया। दो घंटे बीते । वह भाई पुनः आचार्यवर के पास आया। उसने निवेदन किया - महाराज ! मैंने बड़ी भूल की, अब आप माफ करें। अब मैं पूरा समर्पित हूं। आपका जो निर्देश होगा, वैसा ही करूंगा। समर्पण प्रस्तुत हुआ और झगड़ा मिट गया। स्वयं के हाथ में है बदलाव आदमी को तभी बदला जा सकता है जब वह बदलने के लिए प्रस्तुत हो जाए । यह तथ्य है--आदमी को आदेश दिया जा सकता है पर उसे बदला नहीं जा सकता। तीर्थंकर उपदेश देते हैं, इच्छा का प्रयोग भी करते हैं और आदेश की भाषा भी बोलते हैं, फिर भी व्यक्ति को बदल नहीं सकते। बदलना व्यक्ति के स्वयं के हाथ में है । जैन धर्म में कितना बड़ा सत्य स्वीकार किया गया है - तीर्थंकर भी किसी को जबर्दस्ती बदल नहीं सकते। इसका अर्थ है- हृदय परिवर्तन का जितना महत्त्व अहिंसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003082
Book TitleChandani Bhitar ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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