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________________ चांदनी भीतर की है। यदि यह पारिणामिक भाव नहीं होता, जीवत्व की निरन्तरता नहीं होती तो मोक्ष की प्रेरणा जागती ही नहीं। औदयिक भाव अस्तित्व को इतना ढांप लेता कि कभी मोक्ष की बात उपजती ही नहीं किन्तु भीतर एक ज्योति निरन्तर जल रही है और वह ज्योति है जीव पारिणामिक भाव। वह सदा अपने अस्तित्व को प्रगट करना चाहता है। उसे पुद्गल इष्ट नहीं है। वह पुद्गल को विजातीय मानता है। वह व्यक्ति को बार-बार सावधान करता है-तुम मानते हो, मैं भोग रहा हूं, तृप्त हो रहा हूं। खाना खा रहा हूं, तृप्त हो रहा हूं। पर तुम इस सचाई पर ध्यान नहीं देते-तृप्त कौन हो रहा है ? वस्तुतः तृप्त हो रहा है पुद्गल। यह मानना भ्रांति है कि मैं तृप्त हो रहा हूं। तुम इस सचाई को जानो-चारों ओर पुद्गल का सामग्रज्य है। पुद्गल ही तृप्त हो रहा है और पुद्गल ही उसे तृप्त कर रहा है-- पुद्गलैःपुद्गलास्तृप्तिं यान्त्यात्मा पुनरात्मना। परतृप्तिसमारोपः ज्ञानिनस्तन्न युज्यते॥ कारण दुःख का __ आत्मा की भूख अलग प्रकार की है। उसकी भूख न भोजन से तृप्त होती है, न भोग से तृप्त होती है। इन सबसे आत्मा तृप्त नहीं होती किंतु ऐसा समारोप कर दिया गया। जहां समारोप है वहां संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय होता है। आचारांग सूत्र में इस समारोप की ओर ध्यान खींचा गया है--तुम दुःख मिटाने के लिए कार्य कर रहे हो किन्तु और ज्यादा दुःखी बन रहे हो। आदमी सुख के लिए इतना खा लेता है कि वह दुःख का कारण बन जाता है। ज्ञानी के लिए ऐसा करना उचित नहीं है। ज्ञानी होना और तृप्ति का अनुभव करने वाला होना बिल्कुल भिन्न तत्त्व है। ऐसा लगता है--हमारा स्वरूप ज्ञाता का नहीं, भोक्ता का बन गया है। प्रसिद्ध सूक्त है-ज्ञानी जानता है और अज्ञानी भोगता है। अज्ञानी के लिए यह दुःख की चादर द्रोपदी के चीर जितनी लम्बी बन जाती है, जिसका कभी अन्त नहीं होता। अर्थित्व भेद : हेतु भेद अर्थित्व भेद का कारण है हेतु का भेद। एक हेतु है कर्म और एक हेतु है स्वभाव । जीव पारिणामिक हमारा स्वभाव है। जब-जब वह प्रबल होता है, मोक्ष की प्रेरणा जागती है। जब-जब कर्म प्रबल होता है, तब-तब काम की प्रेरणा जागती है। भारतीय साहित्य एवं चिन्तन में दो मूल प्रेरणाएं रही हैं--काम की प्रेरणा और मोक्ष की प्रेरणा। धन तो काम की पूर्ति का साधन-मात्र है। पुरुषार्थ चतुष्टयी का प्रतिपादन किया गया-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। दो प्रेरणाएं हैं काम और मोक्ष । अर्थ काम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003082
Book TitleChandani Bhitar ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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