SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दो भाइयों का मिलन समाधान दिया गया--जो अकिंचन हो जाता है, उसके लिए सारे दरवाजे खुल जाते हैं, वह तीन लोक का अधिपति बन जाता है। पूर्णता का बिन्दु है अकिंचन होना। चर्वा सुख दुःख की मुनि चित्र ने कहा--भाई ! तुम इस लौकिक साम्राज्य की मोह-माया को छोड़ो। यह मुनि-धर्म सुख का मार्ग है। इसे स्वीकार करो। चित्र और संभूति के बीच बहुत लंबा संवाद चला है। चित्र उसे मुनि बनने की प्रेरणा दे रहा है और चक्रवर्ती उसे मुनित्व को छोड़ने के लिए प्रार्थना कर रहा है। उत्तराध्ययन के तेरहवें अध्ययन में दोनों भाइयों का संवाद प्रस्तुत है। वह संवाद बहुत मननीय है। उसमें कर्म की अनेक गुत्थियां सुलझाई गई हैं। आज कर्म के बारे में अनेक प्रश्न खड़े हो रहे हैं। एक प्रश्न है-धन किससे मिलता है ? क्या वह पुण्य का फल है ? वह पुण्य से मिलता है या नहीं ? वैभव किससे मिलता है ? एक बहुत सुखी है और एक दुःखी है। इसका कारण क्या है ? ऐसे अनेक प्रश्न आज चर्चित हो रहे हैं। चित्र और संभूति इन्हीं प्रश्नों पर चर्चा कर रहे थे। वे कोई व्यर्थ की बात नहीं कर रहे थे, सुख दुःख के विपाक की चर्चा कर रहे थे। कर्म-विपाक का विश्लेषण चित्र कह रहा था-तुमने क्या किया और क्या पाया ? संभूति कह रहा था-- तुमने क्या पाया और क्या खोया ? हमने सुख का फल भी भोगा है, दुःख का फल भी भोगा है। हमारा जन्म कर्म के अधीन है। वह सुखद हो या दुःखद। सातसंवेदन या असातसंवेदन की अनुभूति कृत कर्म का परिपाक है-- कर्माधीनं भवेज्जन्म, सुखदं दुःखदं तथा। सातसंवेदनं तद्वद्, असातस्यापि वेदनम्।। सुख और दुःख के विपाक की चर्चा कर्म-विपाक की चर्चा है। कर्म विपाक की चर्चा किए बिना कोई व्यक्ति आध्यात्मिक नहीं बन सकता। अध्यात्म की गहराई में जाने का एक महापथ है कर्मशास्त्र । जो व्यक्ति कर्मशास्त्र को नहीं जानता, कर्मशास्त्र की गहराइयों में जाना नहीं चाहता, वह अध्यात्म की बात को सतही तौर पर ही पकड़ पाएगा। अध्यात्म में उसका अन्तप्रवेश नहीं होगा। अध्यात्म की गहराई में जाने के लिए कर्म के रहस्यों को, कर्म के मर्म को समझना बहुत जरूरी है। आर्य कर्म का उपदेश __ चित्र और संभूति ने कर्म-विपाक का विश्लेषण किया। पूर्वकृत कर्म, पुण्य का विपाक, पाप का विपाक आदि को देखा। मुनि चित्र ने कहा-भाई ! तुम याद करो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003082
Book TitleChandani Bhitar ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy