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________________ मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि संहिता के पालन में भी अपनी स्वतंत्रता और इच्छा का उपयोग करने लगा। प्रत्येक बुराई को रोकने के लिए व्यवस्था है, कानून है, दंड है, फिर भी बुराइयां चल रही हैं, बेईमानी बढ़ रही है । यह बिन्दु है-पुनर्विचार का। निष्कर्ष निकलता है कि आदमी भीतर से न बदले, चेतना का रूपान्तरण न हो तो बाहर से बदला-बदला-सा लगता है, पर वास्तव में बदलता नहीं । व्यवस्था बाहर पर नियंत्रण करती है, भीतर पर नियंत्रण करना उसके अधिकार में नहीं है। व्रत भीतर का अनुशासन है, इसीलिए अणुव्रत का स्वतंत्र मूल्य है । वह व्यवस्था का सहयोग करता है । व्यवस्था उसका सहयोग करती है, फिर भी अपने-अपने स्थान में दोनों स्वतंत्र हैं। अणुव्रत और व्यवस्था दोनों का योग हो सके तो तीसरी स्थिति का निर्माण होता है । उस स्थिति को न आन्तरिक कहा जा सकता है और न बाह्य उसमें व्यक्ति को बदलने और समाज को संवारने की स्थिति बनती है। वहां न कोरा व्यक्तिवाद रहता है और न कोरा समाजवाद । व्यक्तिवाद और समाजवाद दोनों की अपनी-अपनी सीमा रहती हैं, फिर भी दोनो एक-दूसरे के बाधक नहीं, किन्तु साधक होते हैं। इस स्थिति के निर्माण में सबका योग अपेक्षित है। प्रतीक्षा है इस अपेक्षापूर्ति की। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003081
Book TitleMeri Drushti Meri Srushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size8 MB
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