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________________ भारतीय दर्शनों में जैन दर्शन का स्थान आत्मा कूटस्थ है और बौद्ध-सम्मत आत्मा क्षणिक है । अपरिणामी आत्मा का विकास जितना सांख्य ने किया उतना अन्य दृष्टि में उपलब्ध नहीं है । परिणामी चेतना के प्रतिपादन में बौद्धों ने बहुत सफलता प्राप्त की। जैन दर्शन ने आत्मा को परिणामी-नित्य स्थापित कर दोनों दृष्टियों को समन्वित कर दिया। जैन दर्शन ने यह घोषणा की--कोई भी दृष्टि असत्य नहीं है, प्रत्येक दृष्टि सत्यांश है, किन्तु दूसरी दृष्टियों से सापेक्ष हुए बिना वह पूर्ण सत्य नहीं बनती। इस घोषणा ने दार्शनिक मूल्यांकन का सारा दृष्टिकोण ही बदल दिया । आश्चर्य है कि दार्शनिकों ने इस घोषणा पर ध्यान नहीं दिया। यदि इस पर ध्यान दिया जाता तो दर्शनों के परस्पर खंडन-मंडन या जय-पराजय की बात नहीं होती। जो शक्ति परस्पर खंडन-मंडन में लगी वह विभिन्न दृष्टियों के मूल्यांकन में लगती और दर्शन के व्यवस्थित विकास की परम्परा का सूत्रपात हो जाता। ___ जागतिक समस्याओं को सुलझाने के प्रयत्न में प्रत्येक दर्शन भागीदार है । कोई दर्शन किसी एक समस्या को सुलझाने में सफल हुआ है और कोई दूसरी समस्या को सुलझाने में । यदि सभी दृष्टियों मे सत्यांश की अनुभूति हो तो मूल्यांकन का दृष्टिकोण स्वस्थ होगा। यदि एक दृष्टि को पूर्ण सत्य मानकर दूसरी दृष्टियों का मूल्यांकन किया जाए तो दृष्टिकोण स्वस्थ नही होगा। जैन दर्शन ने अनेकान्त दर्शन की स्थापना कर सभी दर्शनों को सापेक्ष दृष्टि से देखा और सभी दर्शनों के मध्य वह समन्वय-सेतु बन गया। अहिंसा और मैत्री के विकास का आधार यह समन्वयपूर्ण दृष्टिकोण ही है । हिंसा की जड़ विचारों का विप्रतिपत्ति हैं। वैचारिक असमन्वय से मानसिक उत्तेजना बढ़ती है और वह फिर वाचिक एवं कायिक हिंसा के रूप में अभिव्यक्त होती है। शरीर जड़ है, वाणी भी जड़ है । जड़ मे हिंसा-अहिंसा के भाव नही होते । इनकी उद्भव-भूमि मानसिक चेतना है। उसकी भूमिकाएं अनंत हैं। प्रत्येक वस्तु के अन्नत धर्म हैं । उनको जानने के लिए अनंत दृष्टियां हैं। प्रत्येक दृष्टि सत्यांश हैं । सब धर्मों का वर्गीकृत रूप अखण्ड वस्तु और सत्यांश का वर्गीकरण अखण्ड सत्य होता है। अखण्ड वस्तु जानी जा सकती हैं किन्तु एक शब्द के द्वारा एक समय मे कही नहीं जा सकती। मनुष्य जो कुछ कहता है, उसमें वस्तु के किसी एक पहल का निरूपण होता है। वस्तु के जितने पहलू हैं, उतने ही सत्य हैं, उतने ही द्रष्टा के विचार हैं। जितने विचार हैं उतनी ही अपेक्षाएं हैं। जितनी अपेक्षाएं हैं, उतने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003081
Book TitleMeri Drushti Meri Srushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size8 MB
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