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________________ जिन शासन : १ को समाज इतना पालता जा रहा है तो बेचारा हार्ट भी कब तक साथ देगा। हार्ट को चाहिए पूरा विश्राम । थोड़ा विश्राम तो वह अपने आप करता है। प्रकृति ने ऐसी व्यवस्था बनाई है कि एक बार वह धड़कता है तो दूसरे क्षण में वह थोड़ा विश्राम कर लेता है। फिर धड़कता है तो फिर विश्राम कर लेता है । पर इतना ही पर्याप्त नहीं, उसे और ज्यादा विश्राम चाहिए । आज का आदमी तो खाली रहता ही नहीं। सोता भी है तो समस्याओं को लेकर सोता है, सपनों के साथ सोता है। कुछ लोग तो शायद नींद से उठते हैं तो भी सपनों के साथ उठते हैं । इतने सपने, इतनी कल्पनाएं, इतना भय सिरहाने लेकर सोते हैं कि जागने पर भी उनसे मुक्त नहीं हो पाते । सोते हैं तब भी भय को सिरहाने लेकर सोते हैं और जागते हैं तो सबसे पहले भगवान् का दर्शन उसी भय का होता है। उस मंगल प्रभात में मंगलमय देवता सामने आता है तो वह भय और चिन्ता का ही आता है, फिर हार्ट ट्रबल क्यों न हो, हृदय का आघात क्यों न हो? भावना की बीमारी है, मन की बीमारी है तो शरीर की बीमारी न हो, यह कैसे संभव हो सकता है? यह तो स्वाभाविक ही है। और शरीर की बीमारी को मिटाने के लिए आज चिकित्सा की पद्धति भी ऐसी मिल गई जो यह चाहती है कि बीमारी का चक्रव्यूह टूटे नहीं, खंडित न हो । एक बीमारी को मिटाने के लिए इतनी तेज दवा दी जाए कि दूसरी बीमारी पैदा न हो जाए। पहली चली जाए, दूसरी पैदा हो जाए । बराबर संतुति चले । कहीं ऐसा न हो कि संतति खंडित हो जाए। भले ही बीमारी को गोद लेना पड़े, पर छोड़ना नहीं। क्योंकि नाम बराबर चलना चाहिए। आप लोग भी नाम छोड़ना नहीं चाहते । वंश-परम्परा को चलाने के लिए पुत्र नहीं होता तो जैसे-तैसे किसी को गोद ले लेते हैं कि नाम चले। नाम बराबर चलता रहेगा, अमर रहे, व्यक्ति मरे नहीं । बड़ा डर लगता है मरने से । तो भला बीमारी क्यों नहीं चाहेगी कि मैं भी अमर रहूं? जब भावना आप में है तो आपकी भावना बीमारी में भी होगी । एक ऐसा चक्र चलता है कि कहीं अंत नहीं होता । जिनवचन इसके लिए एक औषधि है। चरक ने लिखा है—जो रोग को समाप्त करे और नया रोग पैदा न करे, उसका नाम चिकित्सा है । जिनवचन एक ऐसी दवा है जो बीमारी को समाप्त करती है और नयी बीमारी को पैदा नहीं होने देती। बुढ़ापा, जन्म और मरणये तीन सबसे बड़ी बीमारियां हैं । आदमी बूढ़ा बनता है जब कि बूढ़ा बनना कोई चाहता नहीं । आदमी मरता है जब कि मरना भी कोई चाहता नहीं । इसलिए बूढ़ा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003081
Book TitleMeri Drushti Meri Srushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size8 MB
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