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________________ २२ मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि दोनों के प्रति समान दृष्टि बन जाए। हम केवल यह मानकर न चलें कि यह शरीर अस्तित्व है । यदि यह दृष्टि जाग गए, अपने सूक्ष्म शरीर की दृष्टि साफ हो जाए तो दृष्टिकोण सम्यक् बन जाता है । दृष्टि सम्यक् होने पर इस सचाई को समझने में कोई कठिनाई नहीं होती कि दृष्टि मंगल है। दूसरी बात है— आनन्द मंगल है | आनन्द तो स्वयं मंगल है, सुख तो स्वयं मंगल है, किन्तु यह ऐकान्तिक बात नहीं है । कुछ लोगों का आनन्द ऐसा है कि वह दूसरों के लिए अभिशाप बन जाता है। जिनका आनन्द दूसरों के लिए अभिशाप बन जाए, जिनका सुख दूसरों के लिए दुःख बन जाए, वह मंगल नहीं होता । मंगल वह होता है जो दूसरों के लिए अभिशाप न बने, दूसरों के लिए दुःख और समस्या न बने । आदमी को धन से सुख मिलता है और वह मानता है कि धन सबसे बड़ा सुख है । किन्तु धन मिला, समृद्धि बढ़ी तो वह दूसरों के लिए दुःख का कारण बन गया। पड़ोसी के लिए दुःख का कारण बन गया । एक प्रोफेसर ने बीकानेर में एक बात सुनाई -- मैंने देखा एक बड़ा आदमी था । उसका पड़ोसी कुछ गरीब था । धनवान व्यक्ति का नौकर अपने सेठ के घर से कचरा निकालता और बेचारे पड़ोसी के दरवाजे के सामने जाकर डाल देता । उसने धनवान पड़ोसी से शिकायत की कि यह तो अच्छी बात नहीं है। सेठ ने कहा— अच्छा-बुरा क्या होता है, यह तो करने वाला जाने, नौकर की बात नौकर जाने । ऐसी धौंसपैटी जमाई कि बेचारा कुछ बोल ही नहीं पाया। करता भी क्या ? वह उससे लड़ तो सकता नहीं था । चुप हो गया। ऐसा आनन्द और ऐसी समृद्धि जो स्वयं को सुख दे और दूसरों के लिए कठिनाई बन जाए, समस्या बन जाए, वह समृद्धि किसी काम की नहीं । अपनी समृद्धि को कोई बांटता नहीं, अपने आनन्द को कोई बांटता नहीं, किन्तु अपने अहंकार और दुःख को हर कोई दूसरों में बांटना चाहता है । दुःख को दूसरों में बांटने वाले बहुत मिलते हैं, मिटाने वाले कम और शायद इस पदार्थ जगत् में होने वाले आनन्द का सिद्धान्त ही यह है कि दूसरों कंधों पर बन्दूक रखकर गोली छोड़ी जाए। यह सामान्य सिद्धान्त बन 1 है आज का । गया 1 आप सच मानें, यह सम्पदा, हमेशा दूसरों के आधार पर होती है । आज भारतीय लोगों की समस्या है कि नौकर नहीं मिलते। अरे, दो हाथों से काम लो । उपनिषद् में ऋषियों ने कहा है— जिनके पास बीस अंगुलियां होती हैं, उनको किसी बात की चिन्ता नहीं होती। आज जब हमने अपने आपको ही भुला दिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003081
Book TitleMeri Drushti Meri Srushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size8 MB
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