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________________ मंगल पाठ नहीं कहा कि जैन धर्म मंगल है या सबसे प्रधान है । कभी नहीं कहा । और सच तो यह है कि महावीर के समय में 'जैन धर्म' जैसा कोई नाम था ही नहीं। यह नाम तो भगवान् महावीर के निर्वाण के सात-आठ शताब्दियों के बाद प्रचलित हुआ है—जैन धर्म । उस समय इसको श्रमण या अर्हत् धर्म कहते थे, निर्ग्रन्थ प्रवचन कहते थे। निर्ग्रन्थ धर्म यानी निर्ग्रन्थों का धर्म अर्थात् उन लोगों का धर्म, जिनके कोई ग्रन्थ नहीं है, कोई परिग्रह नहीं है, कोई गांठ नहीं है, कोई उलझन नहीं है । इसका अर्थ होता है-आत्मा का धर्म । इस धर्म का नाम था-सामयिक धर्म, श्रमण धर्म, अर्हत् धर्म या निर्ग्रन्थ धर्म, समता वालों का धर्म, आत्मा का धर्म । जब हम आत्मा का धर्म कहते हैं तो सारे विशेषण यहां समाप्त हो जाते हैं । फिर वह विवाद नहीं होता कि कौन-सा धर्म मंगल है ? यानी वह धर्म मंगल है, जो आत्मा का धर्म है । आत्मा का धर्म अर्थात् आत्मा का स्वभाव । धर्म वस्तुत: आत्मा से भिन्न हो ही नहीं सकता। यदि हम उष्णता को अलग कर दें और आग को अलग कर दें तो क्या बचेगा? अग्नि तभी अग्नि है, जब तक उसमें गर्मी है, दाहकता है, जलाने की शक्ति है । पानी में निर्मलता है, शीतलता है तो पानी है। यदि उसमें से हटा दें तो फिर वह पानी कहां रह जाएगा? निर्मलता पानी का धर्म है, ताप अग्नि का धर्म है, वैसे ही आत्मा का भी अपना धर्म है और वह है— ज्ञान, आनन्द, शक्ति । शक्ति आत्मा का धर्म है। आनन्द और ज्ञान आत्मा का धर्म है, इसलिए कहा जा सकता है कि शक्ति मंगल है, ज्ञान और आनन्द मंगल है । प्रश्न तो फिर भी होगा, क्योंकि भाषा की प्रकृति ही ऐसी है। एक बात जब कहते हैं शब्दों के माध्यम से तो दूसरी बात खड़ी हो जाती है । इसलिए खड़ी होती है कि शब्दों में पूरी बात कहने की ताकत नहीं है। शब्दों के द्वारा पूर्ण सत्य की अभिव्यक्ति ही नहीं की जा सकती। हम जो भी कहते हैं, वह एक कोण से कहते हैं, एक दृष्टि से कहते हैं और जब एक दृष्टि से कहते हैं तो दूसरी दृष्टियां अपने आप सामने आ जाती हैं। नये-नये प्रश्न उभरकर आते हैं। प्रश्न पुन: वही आता है-कौन-सी शक्ति मंगल है? वह शक्ति मंगल होगी, जो दूसरों को उठाए । वह शक्ति मंगल नहीं हो सकती जो दूसरों को पछाड़े । शक्ति के द्वारा दोनों काम किए जा सकते हैं किसी को उठाया भी जा सकता है और किसी को पछाड़ा भी जा सकता है । पछाड़ने वाली शक्ति मंगल नहीं हो सकती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003081
Book TitleMeri Drushti Meri Srushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size8 MB
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