SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. राजा रमन्ना और अनेकान्त दर्शन १४९ मिलन के बिन्दु को उन लोगों ने मान्य कर लिया, पर समग्रता से उसे नहीं पकड़ पाए । यहीं से एकांगी दृष्टि का निर्माण शुरु हो गया। भगवान महावीर की यह मौलिक प्ररूपणा है कि प्रत्येक वस्तु में अनन्त विरोधी-युगल टिके रह सकते हैं। जब वस्तु अनन्तधर्मात्मक है और उसमें विरोधी यगलों की सत्ता स्वाभाविक मान ली गई तब प्रश्न यह उठता है कि उन विरोधी धर्मो का सहावस्थान कैसे हो सकता है ? सर्दी और गर्मी, अग्नि एवं पानी साथ-साथ कैसे रह सकते हैं? इनमें सामंजस्य स्थापित करने की क्या प्रक्रिया है? यह एक भ्रांत धारणा है कि अविरोधी तत्त्व साथ रह सकते हैं और विरोधी तत्त्व साथ में नहीं रह सकते । वास्तविकता यह है कि अनेक विरोधी धर्म एक साथ रहते हैं। विरोधी तत्त्व के बिना किसी धर्म का अस्तित्व ही नहीं टिक सकता । अस्तित्व के लिए प्रतिपक्ष होना जरूरी है।" । डॉ० रमन्ना-“प्रतिपक्ष के बिना किसी धर्म का अस्तित्व ही नहीं है, यह तो बहुत वैज्ञानिक बात है।” युवाचार्यश्री-“जैसे आज विज्ञान में कण और प्रतिकण, मेटर और एण्टीमेटर, परमाणु और प्रतिपरमाणु का सिद्धांत है, एक-दूसरे के अस्तित्व की सिद्धि के लिए प्रतिपक्ष को नियामक माना जाता है, वैसे ही उत्तरवर्ती जैन आचार्यों ने 'यत् सत् तत् सप्रतिपक्षं' कहकर वस्तु के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए विरोधी धर्म की सत्ता को स्वीकार किया है। ___ दो विरोधी धर्म साथ में रह सकते हैं, यह एक सार्वभौम नियम है। इसके लिए दूसरा नियम है सापेक्षता का । विरोधी धर्म साथ में रहते हैं, वे इसलिए रहते हैं कि उनमें परस्पर सापेक्षता है । निरपेक्ष धर्म एक साथ रह ही नहीं सकते।” ___ (यह तथ्य भी डॉ. रमन्ना को बहुत वैज्ञानिक लगा। उन्होंने यहां भी अपनी ओर से टिप्पणी की) युवाचार्यश्री-“भगवान महावीर ने सापेक्षता के लिए कम-से-कम चार दृष्टियों की अनिवार्यता बताई है । वैसे दृष्टियां अनन्त हो सकती हैं, पर कम-से-कम चार दृष्टियां तो होनी ही चाहिए-१. द्रव्यदृष्टि, २. क्षेत्रदृष्टि, ३. कालदृष्टि, ४. भावदृष्टि । हम किसी भी वस्तु पर विचार करते हैं, तो सबसे पहले द्रव्य पर विचार किया जाता है, संहति पर विचार होता है—मास एण्ड एनर्जी । द्रव्य कितना है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003081
Book TitleMeri Drushti Meri Srushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy