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________________ मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि सकता है, विस्तार मैं वह उतना निर्मल नहीं रह सकता । आदमी विस्तार चाहता है, किन्तु इस सचाई को हम अस्वीकार न करें कि विस्तार के साथ-साथ कुछ दूषित तत्त्व भी साथ में मिलते हैं। हर बात में ऐसा होता है, जिन वाणी में भी ऐसा हुआ है । उसमें बहुत सारे तत्त्व मिल गए । अब हमें विवेक की आवश्यकता होगी। विवेक करें । जहां भी कोई दोष आ जाता है, वहां विवेक करना जरूरी होता है । जल फिल्टर किया जाता है, यह विवेक है। विवेक का अर्थ है-जो दो हैं, उनको अलग-अलग कर देना । 'विवेकः पृथगात्मता'-अलग-अलग कर देना है विवेक । प्राचीन काल में कहा जाता था कि हंस में विवेक होता है। यह उक्ति बहुत प्रचलित है—'क्षीर-नीर विवेकः' । यानी हंस में यह विवेक शक्ति होता है वह दूध और पानी को अलग-अलग कर देता है । वस्तुत: केवल हंस में ही यह अम्लता की शक्ति नहीं होती। नींबू भी यह काम कर सकता है और मछली भी कर सकती है । संस्कृत-साहित्य में एक प्रसंग आता है मस्त्यादयोऽपि जानन्ति, क्षीरनीरविवेचनम्। प्रसिद्धिरत्र हंसस्य, यश: पुण्यैरवाप्यते ।। “यह क्षीर-नीर का विवेक हंस ही नहीं करता, मछली भी करती है, किन्तु प्रसिद्धि है हंस की। क्योंकि यश तो भाग्य से ही मिलता है।" इसी सन्दर्भ में एक दूसरा श्लोक है मासे मासे समा ज्योत्स्ना, पक्षयोरुभयोरपि । एक: कृष्णः परः शुक्ल:, यश: पुण्यैरवाप्यते ॥ चांद की चांदनी कृष्ण पक्ष में भी होती है और शुक्ल पक्ष में भी होती है। दोनों पक्षों में चांदनी बराबर होती है। फिर एक का नाम कृष्ण पक्ष और एक का नाम शुक्ल पक्ष क्यों? कोई तार्किक कारण मैं नहीं दे सकता, किन्तु यश भाग्य से ही मिलता है । यश मिला, शुक्ल पक्ष बन गया। दूसरे को यश नहीं मिला, कृष्ण पक्ष बन गया। चांदनी दोनों में समान होती है। विवेक की शक्ति हंस में भी होती है, मछली में भी होती है और नींबू में भी होती है । इसका कारण है-अम्लता। उसमें यह शक्ति है कि वह दूध से पानी को अलग कर देता है । हंस के मुंह में भी अम्लता है, मछली में भी अम्लता है। हम ऐसा विवेक करें । अपनी विवेक-शक्ति को जगाएं, असत्य को छोड़ दें और सत्य को स्वीकार करें । जिन वाणी में जो कुछ बाद में मिल गया उसे छोड़ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003081
Book TitleMeri Drushti Meri Srushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size8 MB
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