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________________ मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि १०३ है । संस्कृत और प्राकृत जैसी प्राच्य भाषाओं का तलस्पर्शी अध्ययन, आशुकवित्व, दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन, साम्यवाद आदि राजनीतिक दर्शनों का अध्ययन, पश्चिमी दर्शनों का अध्ययन, आचार्य भिक्षु और श्रीमज्जयाचार्य के साहित्य का अधययन, जैन आगमों का शोधपूर्ण संपादन, प्रवचन की जनभोग्य शैली, जैन परंपरा में ध्यान की विच्छिन्न श्रृंखला का अनुसंधान और उसका प्रयोगात्मक रुप, प्रेक्षा- ध्यान के शिविरों का संचालन आदि-आदि अनेक बिन्दु हैं जो समय-समय पर मिली हुई प्रेरणाओं से दीर्घ रेखाओं में बदले है। उन सबकी चर्चा कभी अपनी आत्मकथा में करना चाहूंगा। एक निबन्ध में उसकी चर्चा सम्भव नहीं है । आचार्यश्री ने एक कुशल शिल्पी और एक कुशल कर्मी के रुप मे एक प्रतिमा को गढ़ा और जिस प्रतिमा का कोई मूल्य नहीं था। प्रतिमा का इस प्रकार निर्माण किया कि उसे यह अनुभव भी नहीं होने दिया कि उसमें किसी विशिष्ट शक्ति का अवतरण या आरोपण किया जा रहा है। कोरा ज्ञान होता तो शून्य पूरा भरता नहीं । उसमें अहंकार को अपना आसन बिछाने का अवसर मिल जाता । ज्ञान के बाद ध्यान की प्रेरणा ने उस शून्य को भर दिया। यदि कोरा ज्ञान होता, ध्यान नहीं होता तो तेरापंथ के नेतृत्व को, सर्वोच्च पद को, उपलब्ध कर मन हर्ष से भर जाता । इस एकछत्र गरिमामय पद पर आचार्य द्वारा नियुक्ति होना एक महत्त्वपूर्ण अवसर है । इस अवसर पर अन्तःकरण में समत्व का भाव जागृत रहे, यह उस सृजन की ही विशेषता है, जिसमें ज्ञान और ध्यान के तत्त्व संतुलित रहे और उनकी फलश्रुति समता के रुप मे प्रतिष्ठित रही । एक भाई ने कहा - युवाचार्य बनने के बाद भी शरीर का वजन नहीं बढ़ा, यह कैसे ? कोई छोटा-मोटा पद प्राप्त होता है तो भी व्यक्ति शरीर से फूल जाता है, कुर्सी भर जाती है । इतना सर्वोच्च पद पा लेने पर भी परिवर्तन क्यों नहीं आया ? मैंने स्मित के साथ कहा- आचार्यश्री ने मुझे पहले योगी बना दिया और बाद में आचार्य बनाया । इसलिए ऐसा नहीं हो सका । ‘वपुः कृशत्वं’- ध्यान सिद्धि का पहला लक्षण है शरीर की कृशता । इसलिए मांसल होना शायद मेरी नियति में ही नहीं है। आदमी हर्ष मोटा होता है । पर मेरे आचार्य ने मुझे पहले ही समता में प्रतिष्ठित कर दिया, इसलिए विशिष्टता उपलब्ध होने पर हर्ष की बात भी मेरी नियति में नही है । मेरे सृजन की नियति है समता । इसका विकास ही मेरी दृष्टि में मेरी सफलता और मेरे सृजन की सफलता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003081
Book TitleMeri Drushti Meri Srushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size8 MB
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