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________________ १०१ मैं मनुष्य हूं (२) लेता है। कुछ भी नहीं खाता। संयम कर लेता है। संयम चेतना के विकास का एक बिन्दु है। जैसे-जैसे मनुष्य आगे बढ़ा है, वैसे-वैसे उसने संयम की चेतना का विकास किया है, विवेक का विकास किया है। प्राणी की एक विशेषता है-इच्छाशक्ति। यदि हम दार्शनिक दृष्टि से सोचें-प्राणी का सीधा-साधा लक्षण क्या हो सकता है तो यह स्पष्ट होगा-चिन्तन, स्मृति और कल्पना-यह प्राणी का लक्षण नहीं बन सकता। जो चिन्तन करता है, जिसमें स्मृति है और जो कल्पना कर सकता है, वह प्राणी है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। चिन्तन, स्मृति और कल्पना अप्राणी में भी होती है। अचेतन में स्मृति है, चिन्तन है और कल्पना है। कम्प्यूटर इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। आज का विकसित कम्प्यूटर स्मृति का बहुत बड़ा माध्यम है। आज के लोग तथ्यों और आंकड़ों को याद रखने के झंझट में नहीं जाते, वे सारे तथ्य और आंकड़े कम्प्यूटर में डाल देते हैं और जब आवश्यकता होती है तब बटन दबाकर उनको प्राप्त कर लेते हैं। तथ्य और आंकड़े ज्यों के त्यों सामने आ जाते हैं। न विस्मृति का भय और न तथ्यों के खो जाने का भय । सब कुछ निश्चित। कल्पना की चेतना भी आज कम्प्यूटर में सन्निहित है। कम्प्यूटर रोग का निदान भी करेगा और औषधि का सुझाव भी देगा। स्वास्थ्य के लिए अनुकूल और प्रतिकूल दोनों तथ्य प्रस्तुत करेगा। वह केवल निदान ही नहीं करता, रोगोपशमन का उपाय भी करता है। कम्प्यूटर चिन्तन भी करता है। वह कविता भी करता है, लेख भी लिखता है। स्मृति, चिन्तन और कल्पना-यह प्राणी का लक्षण नहीं बन सकता। लक्षण वह होता है जो लक्ष्य में ही प्राप्त हो, लक्ष्य से परे प्राप्त न हो। जो लक्ष्य से अतिरिक्त में भी प्राप्त होता है, वह उस वस्तु का लक्षण नहीं बन सकता। प्राणी का लक्षण है-इच्छाशक्ति। यह ऐसा लक्षण है जो चेतन में ही मिलता है, अचेतन में नहीं मिलता। कम्प्यूटर अचेतन है। उसमें और बहुत सारी बातें मिलती हैं किन्तु इच्छाशक्ति नहीं मिलती। इच्छा का उदय केवल चेतन में ही होता है। मनुष्य प्राणी है। उसमें इच्छा है। पशु-पक्षी भी प्राणी है। उनमें भी इच्छा है। जैसे-जैसे चेतना का विकास हुआ, मनुष्य ने इच्छा संयम का सूत्र सीखा। उसने परिज्ञा सीखी, विवेक सीखा। ये दो शब्द दो छोर पर हैं। एक शब्द है इच्छा और दूसरा शब्द है परिज्ञा या विवेक । इच्छा होना एक बात है विवेक करना दूसरी बात है। परिज्ञा दो प्रकार की होती है। एक है जानने वाली परिज्ञा और दसरी है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003080
Book TitleMain Kuch Hona Chahta Hu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size7 MB
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