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________________ ७२ : जैन योग के सात ग्रंथ ( पहला अपरिशुद्ध और दूसरा परिशुद्ध है ।) बोधिसत्व कायपाती (शरीर से दोष होने की संभावना वाले) होते हैं, चित्तपाती ( मानसिक दोष वाले) नहीं होते क्योंकि उपरोक्त भावनाओं के कारण उनका चित्त निर्मल होता है। योग के सारे परिणाम यथोचित भावना की विशेषता से घटित होते हैं। इसलिए अभिनिवेश - आग्रह से मुक्त होकर योगी को अपनी बुद्धि से उसका निरूपण करना चाहिए । ९०. इस प्रकार सामायिक - समत्वभाव की विशुद्धि होती है और ध्याता शुक्ल- ध्यान में पहुंच जाता है तथा क्रमशः आगे बढ़ता हुआ वह केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है। ९१. एएण पगारेणं जायइ सामाइयस्स सुद्धि त्ति । तत्तो सुक्कज्झाणं कमेण तह केवलं चेव ॥ ९२. जो चित्त वासी - चंदनतुल्य पूर्ण समताभाव से ओतप्रोत होता है, वह योगमार्ग में श्रेष्ठ माना जाता है। उसको ही 'चित्तरत्न' कहा जाता है । जो ऐसा नहीं होता वह ईषद् दोषकारी भी होता है। वासी-चंदणकप्पं तु एत्थ सिठ्ठे अओ च्चिय बुहेहिं । आसयरयणं भणियं अओऽण्णहा ईसि दोसो वि ॥ ९३. जइ तब्भवेण जायइ जोगसमत्ती अजोगयाए तओ । जम्मादिदोसरहिया होइ सदेगंतसिद्धि त्ति ॥ यदि योगी उसी जन्म में योग की पूर्णता कर लेता है तो वह शैलेशी अवस्था को प्राप्त कर अर्थात् शारीरिक और वाचिक प्रवृत्तियों का निरोध कर, जन्म-मरण आदि दोषों से रहित होकर एकांत सिद्धि-मुक्ति को प्राप्त हो जाता है। असमत्तीय उ चित्तेसु एत्थ ठाणेसु होइ उप्पाओ । तथ वि य तयणुबंधो तस्स तहऽब्भासओ चेव ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003079
Book TitleJain Yoga ke Sat Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size5 MB
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