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________________ ३. योगशतक : ६९ जो योग के अभ्यासी नहीं हैं उन साधकों को एकांत में प्रायः कोई व्याघात नहीं होता और उनमें योगाभ्यास का सामर्थ्य प्रशस्त हो जाता है। उवओगो पुण एत्थं विण्णेओ जो समीवजोगो त्ति । विहियकिरियागओ खलु अवितहभावो उ सव्वत्थ ॥ प्रस्तुत प्रसंग में उपयोग का अर्थ है- योगसिद्धि की निकटता । स्थान आदि क्रियाओं का यथोक्तविधिपूर्वक समग्रता से पालन करना योगसिद्धि की निकटता है। ७६. एवं अब्भासाओ तत्तं परिणमइ चित्तथेज्जं च । जायइ भवाणुगामी सिवसुहसंसाहगं परमं ॥ इस प्रकार के अभ्यास के द्वारा तत्त्व की परिणति ( राग आदि तत्त्वों का स्वरूप - विमर्श) तथा चित्त की स्थिरता घटित होती है जो जन्मान्तरानुगामी तथा परम मोक्ष सुख की प्राप्ति में सहायक बनती है। ७७. ७८. अहवा ओहेणं चिय भणियविहाणाओ चेव भावेज्जा । ताइए गुणे परमसंविग्गो ॥ सत्ताइसु सत्तेसु ताव मेत्तिं तहा पमोयं गुणाहिएसुं ति । करुणा-मज्झत्थत्ते किलिस्समाणाऽविणेएसु ॥ ७९. ८०. एसो चेवेत्थ कमो उचियपवित्तीए वण्णिओ साहू । इहराऽसमंजसत्तं तहातहाऽठाणविणिओया ॥ (त्रिभिर्विशेषकम्) अथवा परम संविग्न साधक सामान्य रूप से प्रतिपादित विधान के अनुसार प्राणियों के प्रति मैत्री आदि गुणों - भावनाओं का प्रयोग करे । सभी प्राणियों के प्रति मैत्री, गुणाधिक व्यक्तियों के प्रति प्रमोद भावना, दुःखी जीवों के प्रति करुणा और विपरीत वृत्ति वाले मनुष्यों के प्रति मध्यस्थता - उपेक्षा भाव रखे। उचित प्रवृत्तियों का यह क्रम सम्यग्रूप से वर्णित है। अन्यथा, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003079
Book TitleJain Yoga ke Sat Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size5 MB
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