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________________ ४४ : जन याग के सात ग्रंथ ७६. इसी प्रकार केवली क्रमशः वाग्योग और काययोग का निरोध कर, मेरु की भांति स्थिर होकर शैलेशी' अवस्था को प्राप्त कर लेता है। ७७. ७८. एवं चिअ वयजोगं निरुंभइ कमेण कायजोगंपि । तो सेलेसोव्व थिरो सेलेसी केवली होइ ॥ उप्पायइिभंगाइपज्जवाणं नाणानयाणुसरणं ८०. सवियारमत्थवंजणजोगंतरओ पुहुत्तविअक्कं होइ जगदव्वंमि । पुव्वगयसुयाणुसारेणं ॥ ( युग्मम्) अनासक्त पूर्वधर मुनि पूर्वगतश्रुत के अनुसार एक द्रव्य में विद्यमान उत्पाद, स्थिति, व्यय आदि पर्यायों का अनेक नयों से चिंतन करते हैं, वह शुक्लध्यान का 'पृथक्त्व - वितर्क - सविचार' नामक पहला प्रकार है। सविचार का अर्थ है - अर्थ से अर्थान्तर, व्यंजन से व्यंजनान्तर और विवक्षित योग से योगान्तर में संक्रमण होना । तयं पढमसुक्कं । सविआरमरागभावस्स ॥ ७९. जं पुण सुणिप्पकंपं निवायसरणप्पईवमिव चित्तं । उप्पायइिभंगाइयाणमेगंमि पज्जाए ॥ अवियारमत्थवंजणजोगंतरओ तयं बितियसुक्कं । पुव्वगयसुयालंबणमेगत्तवितक्कमवियारं || Jain Education International ( युग्मम्) उत्पाद, स्थिति, व्यय आदि पर्यायों में से किसी एक पर्याय में अपने मन को, निर्वातगृह में रखे हुए प्रदीप की भांति निष्प्रकंप बनाकर चिंतन करना शुक्लध्यान का 'एकत्व - वितर्क - अविचार' नामक दूसरा प्रकार है। यह भी पूर्वगतश्रुत के आलंबन के आधार पर होता है। इसमें अर्थ से अर्थान्तर, व्यंजन से व्यंजनान्तर और योग से योगान्तर में संक्रमण नहीं होता । १. शीलेश : सर्वसंवररूपचरणप्रभुस्तस्येयमवस्था । शैलेशो वा मेरुस्तस्येव याऽवस्था स्थिरतासाधर्म्यात् सा शैलेशी । सा च सर्वथा योगनिरोधे पंचह्रस्वाक्षरोच्चारकालमाना। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003079
Book TitleJain Yoga ke Sat Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size5 MB
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