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________________ २४ . ३१. णाणे णिच्चभासो कुणइ मणोधारणं विसुद्धिं च । नाणगुणमुणियसारो तो झाइ सुनिच्चलमईओ ॥ जो ज्ञान का नित्य अभ्यास करता है, ज्ञान में मन को स्थिर करता है, सूत्र और अर्थ की विशुद्धि रखता है, ज्ञान के माहात्म्य से परमार्थ को जान लेता है, वह सुस्थिरचित्त से ध्यान कर सकता है। ३२. संकाइदोसरहिओ असंमूढमणो पसमथेज्जाइगुणगणोवेओ । दंसणसुद्धीए झामि ॥ होइ जो अपने को शंका आदि दोषों से रहित, प्रशम, स्थैर्य आदि गुणों से सहित कर लेता है, वह दर्शन-शुद्धि (दृष्टि की समीचीनता) के कारण ध्यान में अभ्रांत चित्तवाला हो जाता है। जन पाग सात प्रथ ३३. 1 पोराणविणिज्जरं नवकम्माणायाणं चारित्तभावणाए झाणमयत्तेण य चारित्र भावना से नए कर्मों का अग्रहण, पूर्वसंचित कर्मों का निर्जरण, शुभ कर्मों का ग्रहण और ध्यान-ये बिना किसी प्रयत्न के ही उपलब्ध हो जाते हैं। ३४. ३५. सुविदियजगस्सभावो निस्संगो निब्भओ निरासो य वेरग्भावियमणो झाणंमि सुनिच्चलो होइ ॥ जो जगत् के स्वभाव को जानता है, निस्संग (अनासक्त) है, अभय और आशंसा से विप्रमुक्त है, वह वैराग्य भावना से भावित मन वाला होता है। वह ध्यान में सहज ही निश्चल हो जाता है । सुभायाणं । समेइ ॥ निच्चं चिय जुवइपसुनपुंसगकुसीलवज्जियं जइणो । ठाणं वियणं भणियं विसेसओ झाणकालंमि ॥ १. जिस व्यक्ति में ज्ञान की निर्मलता, दृष्टि की निर्मलता, चारित्र की निर्मलता और वैराग्य या अनासक्ति होती है वह सहज ही ध्यानारूढ़ हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003079
Book TitleJain Yoga ke Sat Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size5 MB
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