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________________ ३२ : जैन योग के सात ग्रंथ शंकाशील होना, दूसरों की घात करने की कलुषता से आकुलचित्त रहना, रौद्रध्यान का 'विषयसंरक्षणानुबंधी' नामक चौथा प्रकार है। २३. इय करणकारणाणुमइविसयमणुचिंतणं चउन्भेयं। अविरयदेसासंजयजणमणसंसेवियमहण्णं इस प्रकार रौद्रध्यान के चार भेद हैं-हिंसानुबंधी, मृषानुबंधी, स्तेयानुबंधी और विषयसंरक्षणानुबंधी। इनको स्वयं करना, दूसरों से करवाना और इनका अनुमोदन करना तथा उसी विषय का पर्यालोचन करना रौद्रध्यान है। यह अश्रेयस्कर ध्यान अविरत और देश-असंयत (श्रावक) के होता है। २४. एयं चउव्विहं रागदोसमोहाउलस्स जीवस्स। रोद्दज्झाणं संसारवद्धणं नरयगइमूलं॥ रौद्रध्यान के ये चारों प्रकार राग, द्वेष और मोह से आकुल व्यक्ति के होते हैं। ये जन्म-मरण (संसार) को बढ़ाने वाले और नरकगति के मूल कारण हैं। २५. कावोयनीलकालालेसाओ तिव्वसंकलिट्ठाओ। रोइज्झाणोवगयस्स कम्मपरिणामजणियाओ॥ रौद्रध्यान के समय व्यक्ति की कापोत, नील और. कृष्ण-ये तीनों लेश्याएं अत्यंत संक्लिष्ट होती हैं। ये कर्मपरिणामजनित होती हैं। २६. लिंगाइं तस्स उस्सण्णबहुलनाणाविहाऽऽमरणदोसा। तेसिं चिय हिंसाइसु बाहिरकरणोवउत्तस्स॥ जो इन हिंसा, मृषावाद आदि में (रौद्रध्यान के चारों प्रकारों में) वाणी और शरीर से संलग्न है, उस रौद्रध्यानी के चार लक्षण हैं उत्सन्नदोष-रौद्रध्यान के हिंसा आदि चार प्रकारों में से किसी एक में बहुलतया प्रवृत्त होना। बहुलदोष-रौद्रध्यान के सभी प्रकारों में प्रवृत्त होना। नानाविधदोष-चमड़ी उधेड़ने, आंखें निकालने आदि हिंसात्मक For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003079
Book TitleJain Yoga ke Sat Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size5 MB
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