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________________ २. ध्यानशतक : २९ देवेन्द्र, चक्रवर्ती आदि वैभवशाली व्यक्तियों के विषय और वैभव की प्रार्थना करना निदान है। वह अतिशय अज्ञान से संवलित और अधम है। यह आर्त्तध्यान का चौथा प्रकार है। एयं चउव्विहं रागदोसमोहंकियस्स जीवस्स । संसारवद्धणं अट्टज्झाणं तिरियगइमूलं ॥ आर्त्तध्यान के ये चारों प्रकार राग, द्वेष और मोहयुक्त व्यक्ति के होते हैं। आर्त्तध्यान तिर्यंच गति का मूल कारण और संसार को बढ़ाने वाला है। १०. ११. १२. मज्झत्थस्स उ मुणिणो, सकम्मपरिणामजणियमेयंति । वत्थुस्सभावचिंतणपरस्स सम्म सहंतस्स ॥ कुणओ व पसत्थालंबणस्स पडियारमप्पसावज्जं । तब संजम पडियारं च सेवओ धम्ममणियाणं ॥ ( युग्मम्) जो मुनि वस्तु के स्वभाव का चिंतन करता है, मध्यस्थ (राग द्वेष-रहित) भाव में स्थित है, यह जानता है कि संयोग, वियोग, रोग आदि अपने ही कर्मों के परिणाम हैं, जो उन सबको समभाव से सहता है, जो प्रशस्त आलंबन लेता है, निरवद्य प्रतिकार करता है, जो कर्मजनित दुःखों के लिए तप और संयम को प्रतिकार मानकर बिना निदान किए उनका सेवन करता है, उसके धर्म्यध्यान होता है। १३. रागो दोसो मोहो य जेण संसारहेयवो भणिया । अट्टम य ते तिण्णि वि तो तं संसारतरुबीयं ॥ राग, द्वेष और मोह - तीनों संसार के हेतु हैं। ये आर्त्तध्यान में विद्यमान रहते हैं, इसलिए आर्त्तध्यान को संसार रूपी वृक्ष का बीज कहा गया है। १४. कावोयनीलकालालेस्साओ अट्टज्झाणोवगयस्स Jain Education International णाइसकिलिट्ठाओ। कम्मपरिणामजणिआओ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003079
Book TitleJain Yoga ke Sat Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size5 MB
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